SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! अणंतरोगाढाइंगिण्हड, णो परंपरोगाढाइंगिण्हइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव जिन अवगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है क्या वह अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है या परम्परावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? उत्तर - हे गौतम! जीव अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है किन्तु परम्परावगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है। जाइं भंते! अणंतरोगाढाइं गिण्हइ ताइं किं अणूइं गिण्हइ, बायराइं गिण्हइ? . गोयमा! अणूइं वि गिण्हइ, बायराइं वि गिण्हइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव जिन अनन्तरावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है क्या वह अणु द्रव्यों को ग्रहण करता है या बादर द्रव्यों को ग्रहण करता है ? उत्तर - हे गौतम! जीव अणु द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और बाद द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। जाइं भंते! अणूइं वि गिण्हइ, बायराइं वि गिण्हइ ताई किं उद्यं गिण्हड, अहे गिण्हइ, तिरियं गिण्हइ? गोयमा! उड्डे वि गिण्हइ, अहे वि गिण्हइ, तिरियं वि गिण्हइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव जिन अणु और बादर द्रव्यों को ग्रहण करता है तो क्या वह ऊर्ध्व दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अधो दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या तिरछी दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है ? उत्तर - हे गौतम! जीव ऊँची, नीची और तिरछी दिशा में स्थित अणु या बादर द्रव्यों को ग्रहण करता है। जाइं भंते! उर्ल्ड वि गिण्हइ, अहे वि गिण्हइ, तिरियं वि गिण्हइ ताइं किं आई गिण्हइ, मज्झे गिण्हइ, पज्जवसाणे गिण्हइ? गोयमा! आइं वि गिण्हइ, माझे वि गिण्हइ, पजवसाणे वि गिण्हइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव जिन ऊर्ध्व (ऊँची) अधो (नीची) और तिरछी दिशा के द्रव्यों को ग्रहण करता है तो क्या वह उन्हें आदि में ग्रहण करता है मध्य में ग्रहण करता है या अन्त में ग्रहण करता है? ___ उत्तर - हे गौतम! जीव उन द्रव्यों को आदि में भी ग्रहण करता है, मध्य में भी ग्रहण करता है और अन्त में भी ग्रहण करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy