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________________ ३३६ प्रज्ञापना सूत्र अह भंते! कंसं कंसोयं परिमंडलं सेलं थूभं जालं थालं तारं रूवं अच्छिपव्वं कुंडं पउमं दुद्धं दहिं णवणीयं असणं सयणं भवणं विमाणं छत्तं चामरं भिंगारं अंगणं णिरंगणं आभरणं रयणं जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णपुंसगवऊ? हंता गोयमा! कंसं जाव रयणं जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णपुंसगवऊ ॥३८४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कांस्य (कांसा), कंसोक (कंसोल) परिमंडल, शैल, स्तूप, जाल, स्थाल, तार, रूप, अक्षि (नेत्र), पर्व, कुण्ड, पद्म, दूध, दही, नवनीत, अशन, शयन, भवन, विमान, छत्र, चामर, भृगार, आंगन, निरंगन, आभरण (आभूषण) और रत्न तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं वे सब क्या नपुंसकवाची (नपुंसक वचन) हैं ? उत्तर - हाँ गौतम! कांस्य से लेकर रत्न पर्यन्त तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं वे सब नपुंसकवाची (नपुंसकलिंग) हैं। ___अह भंते! पुढवि त्ति इत्थिवऊ, आउत्ति पुमवऊ, धण्णे त्ति णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! पुढवि त्ति इत्थिवऊ, आउ ति पुमवऊ, धण्णे त्ति णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वी स्त्रीवाची (स्त्रीवचन-स्त्रीलिंग) है, अप् (पानी) पुरुषवाची (पुल्लिंग) है, धान्य नपुंसकवाची है क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या.यह भाषा मृषा नहीं है? उत्तर - हाँ गौतम! पृथ्वी स्त्रीवाची, अप् पुरुषवाची और धान्य नपुंसकवाची शब्द है। यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा नहीं है। ___ अह भंते! पुढवि त्ति इत्थिआणमणी, आउ त्ति पुमआणमणी, धण्णे त्ति णपुंसग आणमणी पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! पुढवित्ति इत्थिआणमणी, आउ त्ति पुमआणमणी, धण्णे त्ति णपुंसगआणमणी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। • भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वी यह स्त्री आज्ञापनी है, अप् पुरुष आज्ञापनी है और धान्य नपुंसक आज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है? ___ उत्तर - हाँ गौतम! पृथ्वी स्त्री आज्ञापनी है, अप् पुरुष आज्ञापनी है और धान्य नपुंसक आज्ञापनी है। यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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