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________________ - उत्तर - हे गौतम! अनेक नैरयिक जीव भव चरम की अपेक्षा से चरम भी हैं और अचरम भी हैं। लगातार अनेक वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में भव की अपेक्षा चरम और अचरम का निरूपण किया गया है। भव पर्याय रूप चरम भव चरम है। अर्थात् पृच्छा काल में जिस नैरयिक आदि जीव का वह वर्तमान भव अन्तिम है, वह भव चरम है और जिसका वह भव अन्तिम नहीं है, वह भव अचरम है । बहुत- त-से नैरयिक जीव ऐसे भी हैं, जो वर्तमान नैरयिक भव के पश्चात् पुनः नैरयिक भव में उत्पन्न नहीं होंगे, वे नैरयिक भव की अपेक्षा भव चरम हैं, किन्तु जो नैरयिक भविष्य में पुनः नैरयिक भव में उत्पन्न होंगे, वे भव अचरम हैं । नैरयिक एवं देवों के १४ दण्डकों में गति चरम और भव चरम का आशय एक समान समझना चाहिये। Jain Education International - दसवां चरम पद ४. भाषा चरम - अचरम रइए णं भंते! भासाचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए । भावार्थ प्रश्न हे भगवन् ! भाषा चरम की अपेक्षा से एक नैरयिक जीव चरम है या अचरम ? उत्तर - हे गौतम! भाषा चरम की अपेक्षा से एक नैरयिक जीव कदाचित् चरम है तथा कदाचित् अचरम है। इसी तरह लगातार एक वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। रइया णं भंते! भासाचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि, एवं जाव एगिंदियवज्जा णिरंतरं जाव वेमाणिया । भावार्थ प्रश्न हे भगवन् ! भाषा चरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? - - भाषा चरम- अचरम ३१७ ... उत्तर - हे गौतम! वे भाषा चरम की अपेक्षा से चरम भी हैं और अचरम भी हैं। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक देवों तक लगातार इसी प्रकार कथन करना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में भाषा की अपेक्षा चरम और अचरम का निरूपण किया गया है। जो जीव भाषा की अपेक्षा से चरम हैं, अर्थात् जिन्हें यह भाषा अन्तिम रूप में मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, वे भाषा - चरम हैं, जिन्हें फिर भाषा प्राप्त होगी, वे भाषा - अचरम हैं । एकेन्द्रिय जीव भाषा रहित होते हैं, क्योंकि उन्हें जिह्वेन्द्रिय प्राप्त नहीं होती, इसलिए वे भाषा- चरम या भाषा - अचरम की कोटि में परिगणित नहीं होते । - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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