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प्रज्ञापना सूत्र
२. स्थिति चरम - अचरम
रइए णं भंते! ठिईचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ?
गोयमा! सिय चरिमे, सिय अचरिमे, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए । भावार्थ- प्रश्न- हे भगवन् ! एक नैरयिक जीव स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ?
उत्तर - हे गौतम! एक नैरयिक जीव स्थिति चरम की अपेक्षा से कदाचित् चरम है, कदाचित् अचरम है। लगातार एक वैमानिक देव पर्यन्त इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् चौबीस ही दण्डक के जीवों में एक वचन की अपेक्षा से इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर समझ लेना चाहिए। रइया णं भंते! ठिईचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ?
गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनेक नैरयिक जीव स्थिति चरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ?
उत्तर - हे गौतम! स्थिति चरम की अपेक्षा अनेक नैरयिक जीव चरम भी हैं और अचरम भी हैं। लगातार अनेक वैमानिक देवों तक इसी प्रकार की प्ररूपणा करनी चाहिए।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में स्थिति की अपेक्षा चरम - अचरम का निरूपण किया गया है। स्थिति पर्याय रूप चरम को स्थिति चरम कहते हैं । जो नैरयिक जीव पृच्छा के समय जिस स्थिति आयु का अनुभव कर रहा है, वह स्थिति अगर उसकी अन्तिम है, फिर कभी उसे वह स्थिति प्राप्त नहीं होगी तो वह नैरयिक स्थिति की अपेक्षा चरम कहलाता है। यदि भविष्य में फिर कभी उसे उस स्थिति का अनुभव करना पड़ेगा, तो वह स्थिति उसके लिये अचरम है।
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३. भव चरम - अचरम
रइए णं भंते! भव चरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ?
गोयमा ! सिय चरिमे, सिय अचरिमे, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए ।
भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! एक नैरयिक भव चरम की अपेक्षा चरम है या अचरम ?
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उत्तर - हे गौतम! भव चरम की अपेक्षा से एक नैरयिक कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम
है । इसी प्रकार एक वैमानिक तक इसी प्रकार कहना चाहिए।
णेरड्या णं भंते! भवचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ?
गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया ।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनेक नैरयिक भव चरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ?
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