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________________ २९२ एक लघु प्रतर द्वारा -लोक व अलोक के चरम द्रव्यों व प्रदेशों का दर्शक चित्र ૨૦ १९ १३ 16 17 Jain Education International ૨ (१६) 18 १४ ૨૨૦ १८ ९५ 15 १२ 14 १५ १७ १४ ११ २४ २३ 19 १६ 20 २० १६ १३ 13 |१० 12 प्रज्ञापना सूत्र १५ 1 १ ર ९ १२ ११ 11 १४ १३ २ - ३ ३ (१० ८ १२ 10 3 ३ 10 9 ४ For Personal & Private Use Only ४ ११ 4 ४ 8 ५ १० 5 7 ६ नोट:- उपर्युक्त एक प्रतर के चित्र में लोक व अलोक के 'चरम द्रव्यों व प्रदेशों को बताया गया है - उनकी संख्या क्रमशः इस प्रकार हैं (१) लोक के चरम द्रव्य १६ (२) लोक के चरम प्रदेश २० (३) अलोक के चरम द्रव्य २० (४) अलोक के चरम प्रदेश २४ । वृहत् संख्यात प्रदेशी प्रतर होने पर 'चरम द्रव्यों के चरम प्रदेश संख्यात गुणा हो जाते हैं तथा वृहत् असंख्यात प्रदेशी प्रतर होने पर 'चरम द्रव्यों से चरम प्रदेश असंख्यात गुणा हो जाते हैं । खुलासा - उपर्युक्त प्रतर में मध्य में रहे हुए ४० प्रदेशों (जिन पर अंक नहीं लिखे हुए हैं उन) का 'युग्म प्रदेशी प्रतर वृत संस्थान' बताया गया है। उसके बाहर के प्रथम परिक्षेप ( वलय- घेरे) आकाश प्रदेशों पर लिखे हुए 'गहरे वर्ण के अंकों ( १, २. ३.... ) को 'लोक के चरम द्रव्यों के ܩ 6 www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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