SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां चरम पद - लोक अलोक के चरम-अचरम द्रव्य प्रदेशों की अल्प बहुत्व २८९ ... ७. उनसे लोक के अचरमान्त प्रदेश असंख्यात गुणा - असंख्यात गुणा बड़ा क्षेत्र होने से (लोक के भीतरी सम्बद्ध पूरे भाग के प्रदेश-अचरमान्त प्रदेश कहे जाते हैं।) ८. उनसे अलोक के अचरमान्त प्रदेश अनंतगुणा - लोक की सीध की ७ रज्जु के बाहल्य (जाडाई) व पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व अधो अलोकान्त तक की (अलोकान्त से अलोकान्त तक) सम्पूर्ण श्रेणियाँ ले लेना। केवली समुद्घात की तरह कपाट समझना चाहिए, जैसे केवली समुद्घात में शरीर प्रमाण मोटाई (जाड़ाई) वाला एक कपाट होता है, वैसे ही यहाँ लोक प्रमाण (सात रज्जु प्रमाण) मोटाई वाले दो कपाट समझना। ऐसा समझने पर इन दो कपाटों के सिवाय शेष अनन्तगुण क्षेत्र भी बच जाता है। जिसका आगे के ११ वें बोल में समावेश (ग्रहण) किया गया है। इन दो कपाटों की संज्ञा (नाम) इस प्रकार समझना चाहिए - "लोकानगत-लोक का अनुगमन करने वाली लोक की सीध वाली अलोक की श्रेणियाँ। ९. उनसे लोक-अलोक दोनों के चरमान्त-अचरमान्त प्रदेश विशेषाधिक - अलोक के चरमान्त प्रदेशों की राशि में-लोक के अचरमान्त प्रदेशों को मिलाने से - विशेषाधिक हुआ (अलोक के अचरमान्त प्रदेशों से लोक के अचरमान्त प्रदेश अनन्तवें भाग जितने ही होने से-विशेषाधिक फर्क ही होता है)। १०. उनसे सर्व द्रव्य विशेषाधिक - जितने भी लोक अलोक के चरमान्त अचरमान्त प्रदेश हैं (जिनको ७वें ८ वें बोल में बताया गया है) उन सब को ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा एक-एक द्रव्य मान लिया है अर्थात् दो कपाट जो अलोकान्त से अलोकान्त तक (पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण, ऊर्ध्व अधो) लिए उन दो कपाटों में रहे हुए सभी प्रदेशों को एक एक द्रव्य मान लिया गया है। अतः ये सब तो 'द्रव्य' समझ लिए फिर इनमें 'जीव पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कालद्रव्य' इन पांच द्रव्यों को मिलाने से 'सर्व द्रव्य विशेषाधिक' हो जाते हैं। (यद्यपि इन पांच द्रव्यों में जीव व पुद्गल द्रव्य अनन्त-अनन्त होते हैं। तथापि ये 'दो कपाटों में रहे कुल प्रदेशों के अनन्तवें भाग रूप ही होते हैं अत: इनके मिलने से पूर्वोक्त राशि से द्रव्य विशेषाधिक ही होते हैं। ११. सर्व प्रदेश अनन्त गुणा - दो कपाटों के सिवाय शेष चारों दिशा के अन्तराल में अनन्तगुणा क्षेत्र होने से प्रदेश भी अनन्त गुणे हो जाते हैं। १२. सर्व पर्याय अनन्त गुणी - लोक एवं अलोक के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त अनन्त अगुरुलघु आदि पर्यायें होने से-सर्व पर्यायें अनन्त गुणी हो जाती है। नोट - चरम पद अपने आप में अनेक विवक्षाओं एवं अपेक्षाओं को लिए हुए हैं। अत: उपर्युक्त प्राचीन परम्परा पर आधारित अपेक्षाओं से अल्प बहुत्व में सामंजस्य बिठाना उचित ही प्रतीत होता है। तत्त्व बहुश्रुत गम्य। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy