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________________ २८२ प्रज्ञापना सूत्र रूप) है अथवा अचरमान्त बहुप्रदेश रूप ( अचरम रूप मध्य प्रदेशों वाली अर्थात् मध्य के खण्ड में स्थित बहुत प्रदेश रूप ) है ? उत्तर - हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथ्वी न तो चरम है, न ही अचरम है, न अनेक चरम रूप और न अनेक अचरम रूप है तथा न चरमान्त अनेक प्रदेश रूप है और न अचरमान्त अनेक प्रदेश रूप है, किन्तु नियमतः अचरम और अनेक चरम रूप है तथा चरमान्त अनेक प्रदेश रूप और अचरमान्त अनेक प्रदेश रूप है। रत्नप्रभा पृथ्वी की तरह यावत् अधः सप्तमी ( तमस्तम: प्रभा) पृथ्वी तक इसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए। सौधर्मादि से लेकर यावत् अनुत्तर विमान तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए । ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी की वक्तव्यता भी इसी तरह (रत्नप्रभापृथ्वी के समान) कह लेनी चाहिए। लोक के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए और अलोक (अलोकाकाश) के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिए । विवेचन - चरम का अर्थ है- अंतिम और अचरम का अर्थ है- जो अन्तिम न हो, मध्य में हो किन्तु प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभा आदि के चरम अचरम होने विषयक पृच्छा की है । अतः टीकाकार ने यहाँ चरम का अर्थ किया है- पर्यन्तवर्ती यानी अन्त में स्थित और अचरम शब्द का अर्थ किया है - जो चरम - अन्तवर्ती न हो अर्थात् मध्यवर्ती हो । यहाँ चरम और अचरम शब्द सापेक्ष हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी अभेद (अखण्ड रूप-पूरी पृथ्वी एक अवयवी रूप) विवक्षा (कथन) से तो चरम भी नहीं यावत् अचरमान्त प्रदेश रूप भी नहीं है किन्तु भेद (खण्ड-खण्ड रूप-पृथक् अलग-अलग रूप से असंख्य प्रदेशों में अवगाढ़ अनेक अवयवों (टुकड़ों) में विभक्त रूप) विवक्षा से - नियमा- एक अचरम (मध्य में स्थित एक बड़े खण्ड की अपेक्षा से) है। बहुत चरम (अन्तिम भागों में रहे हुए तथाविध एकत्व परिणाम वाले बहुत खण्डों की अपेक्षा से) है । चरमान्त प्रदेश रूप (बाह्य - अन्तिम किनारे के खण्डों में रहे हुए प्रदेशों की अपेक्षा से) हैं, अचरमान्त प्रदेश रूप (मध्य के एक बड़े खण्ड में रहे हुए प्रदेशों की अपेक्षा से) है। इसी प्रकार शेष छह नरक पृथ्वियाँ १२ देवलोक ९ ग्रैवेयक ५ अनुत्तर विमान, ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्ध शिला) लोक और अलोक ये ३५ बोल कह देना चाहिए। नोट - यहाँ पर जो रत्नप्रभा पृथ्वी आदि के भेद विवक्षा से चरम अचरमादि का कथन है, उसमें किनारे (अन्तिम भागों) में आये हुए प्रदेशों को छोड़ कर शेष अन्तर के प्रदेशों को परस्पर सम्बद्ध होने से एक अचरम द्रव्य रूप से माना गया है तथा किनारे के द्रव्यों में बीच बीच में विदिशा आदि के कारण परस्पर (एक दूसरे से) सम्बद्ध (जुड़ा हुआ) नहीं होने से अनेक चरम द्रव्य रूप गिना गया है। अलोक के चरमान्त प्रदेशों में यहाँ उन्हीं अलोक के प्रदेशों को गिना गया है जो लोक के चरमान्त प्रदेशों से स्पर्श किए हुए हों । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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