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दसवां चरम पद - लोकालोक की चरम अचरम वक्तव्यता
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इसके बाद परिमण्डल, वृत्त, आयत, त्रिकोण और चतुरस्र इन पांच संस्थान और उनके भेद, प्रभेद, प्रदेश, अवगाहना और उसके चरम आदि की चर्चा की गयी है।
इसके पश्चात् गति, स्थिति, भव, भाषा, श्वासोच्छ्वास, आहार, भाव, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इन ग्यारह बातों की अपेक्षा से चौबीस दण्डक के जीवों के चरम अचरम आदि का विचार गिया गया है। अर्थात् गति आदि की अपेक्षा से कौन से जीव चरम हैं और कौनसे जीव अचरम हैं इत्यादि विषयों पर गंभीर विचार किया गया है। ___ प्रज्ञापना सूत्र के नौवें पद में जीवों के उत्पत्ति स्थान-योनि का वर्णन करने के बाद सूत्रकार इस दसवें पद में चरम-अचरम का वर्णन करते हैं। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
लोकालोक की चरम अचरम वक्तव्यता कइ णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ?
गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ। तंजहा - रयणप्पभा, सक्करप्पभा, वालुयप्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पभा, तमप्पभा, तमतमप्पभा, ईसिप्पब्भारा॥ ३५३॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी कही गई हैं ?
उत्तर - हे गौतम! आठ पृथ्वियाँ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं - १. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. बालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमःप्रभा ७. तमस्तम:प्रभा और ८. ईषत्प्राग्भारा।
इमा णं भंते! रयणप्पभा पुढवी किं चरिमा, अचरिमा, चरिमाइं, अचरिमाइं, चरिमंतपएसा, अचरिमंतपएसा?
गोयमा! इमा णं रयणप्पभा पुढवी णो चरिमा, णो अचरिमा, णो चरिमाइं, णो अचरिमाइं, णो चरिमंतपएसा, णो अचरिमंतपएसा, णियमा अचरिमं च चरिमाणि य, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य, एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी, सोहम्माई जाव अणुत्तर विमाणा णं एवं चेव, ईसिप्पब्भारा वि एवं चेव, लोगे वि एवं चेव, एवं अलोगे वि॥ ३५४॥ .. भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या यह रत्नप्रभा पृथ्वी चरम (पर्यन्तवर्ती-अन्तिम या अंत में स्थित) है, अचरम (मध्यवर्ती-बीच में स्थित) है, अनेक चरम रूप (बहुत चरम अन्त में स्थित बहुत खण्डों रूप) है, अनेक अचरम रूप (बहुत अचरम-अनेक अचरम रूप मध्य में स्थित बहुत खण्डों रूप) है, चरमान्त बहुप्रदेश रूप (चरम रूप अन्त प्रदेशों वाली अर्थात् खण्डों में स्थित बहुत प्रदेश
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