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प्रज्ञापना सूत्र
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___गोयमा! णो संवुडा जोणी, वियडा जोणी, णो संवुडवियडा जोणी। एवं जाव चउरिदियाणं। सम्मुच्छिम पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं सम्मुच्छिम मणुस्साण य एवं चेव। गब्भवक्कंतिय पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं गब्भवक्कंतिय मणुस्साण य णो संवुडा जोणी, णो वियडा जोणी, संवुडवियडा जोणी। वाणमंतर जोइसिय वेमाणियाणं जहा जेरइयाणं॥३५०॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्या बेइन्द्रिय जीवों की योनि संवृत्त होती है, विवृत्त होती है या संवृत्त-विवृत्त होती है?
उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीवों की योनि संवृत्त नहीं होती किन्तु विवृत्त होती है परन्तु संवृत्तविवृत्त नहीं होती है।
इसी प्रकार यावत् चउरिन्द्रिय जीवों तक की योनि के विषय में समझ लेना चाहिए।
सम्मूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक एवं सम्मूछिम मनुष्यों की योनि के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए अर्थात् बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय, सम्मूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और सम्मूछिम मनुष्य की सिर्फ विवृत्त योनि होती है। __गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों और गर्भज मनुष्यों की योनि संवृत्त नहीं होती और न विवृत्त योनि होती है, किन्तु संवृत्त-विवृत्त योनि होती है।
वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की योनि के सम्बन्ध में नैरयिकों की योनि की तरह समझना चाहिए अर्थात् इनकी संवृत्त योनि होती है।
विवेचन - नैरयिकों के उत्पत्ति स्थान नरक निष्कुट होते हैं और वे ढंके हुए झरोखे के समान होते हैं इसलिए नैरयिक जीवों की योनि संवृत्त कही गयी है। इसी प्रकार भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों की योनि भी संवृत्त होती है क्योंकि उनकी उत्पत्ति देव शय्या में देव दूष्य से ढंके हुए स्थान में होती है। एकेन्द्रिय जीवों की योनि भी संवृत्त होती है क्योंकि उनका उत्पत्ति स्थान स्पष्ट प्रतीत नहीं होता है।
बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, सम्मूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं सम्मूछिम मनुष्य विवृत्त योनि वाले होते हैं क्योंकि उनके उत्पत्ति स्थान स्पष्ट प्रतीत होते हैं।
गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रियों और गर्भज मनुष्यों की योनि संवृत्त-विवृत्त उभय रूप होती है।
संवृत्त - जो योनि आच्छादित (ढंकी हुई हो-चौतरफ से घिरी हुई उत्पत्ति स्थान के आस-पास की जगह खाली नहीं हो, ठोस (पोल रहित) हो।
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