________________
२७२
प्रज्ञापना सूत्र
.०००
.
.
एएसि णं भंते! जीवाणं सचित्तजोणीणं अचित्तजोणीणं मीसजोणीणं अजोणीणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मीसजोणिया, अचित्तजोणिया असंखिज गुणा, अजोणिया अणंतगुणा, सचित्तजोणिया अणंतगुणा॥३४८॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सचित्त योनि वाले, अचित्त योनि वाले, सचित्ताचित्त (मिश्र) योनि वाले और अयोनिक-योनि रहित जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? ..
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव सचित्ताचित्त (मिश्र) योनि वाले होते हैं उनसे अचित्त योनि वाले जीव असंख्यात गुणा हैं और उनसे योनि रहित जीव अनन्त गुणा हैं उनसे भी सचित्त योनि वाले जीव अनन्त गुणा हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सचित्त आदि तीन योनियाँ बता कर चौबीस दंडकों के जीवों में कौनकौन सी योनियाँ पाई जाती है। इसका वर्णन किया गया है।
नैरयिकों का जो उपपात क्षेत्र है वह किसी भी जीव के द्वारा शरीर रूप में गृहीत नहीं होने से उनकी अचित्त योनि होती है। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं किन्तु उनके आत्मप्रदेशों के साथ उपपात स्थान के पुद्गल परस्पर अभेदात्मक संबंध वाले नहीं है यानी उन जीवों ने उपपात स्थान के पुद्गलों को शरीर रूप में ग्रहण नहीं किया है अतः उनकी अचित्त योनि होती है। इसी प्रकार असुरकुमार आदि भवनपतियों की, वाणव्यंतरों की, ज्योतिषियों की और वैमानिक देवों की अचित्त योनि समझना चाहिए। पृथ्वीकायिकों से लेकर सम्मूछिम मनुष्यों पर्यंत जीवों का उपपात क्षेत्र अन्य जीवों द्वारा कदाचित् ग्रहण किया हुआ होता है, कदाचित् ग्रहण किया हुआ नहीं होता है और कदाचित् अंशतः ग्रहण किया हुआ और अंशतः ग्रहण नहीं किया हुआ उभय स्वभाव वाला भी होता है अतः इन जीवों में तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों की जहाँ उत्पत्ति होती है वहाँ अचित्त शुक्र और शोणित के पुद्गल भी होते हैं अतः उनकी सचित्ताचित्त (मिश्र) योनि होती है। नैरयिक और देव उत्पन्न होते समय अचित्त पुद्गलों का आहार ग्रहण करके ही शरीर बनाते हैं अतः उत्पत्ति स्थान (कुंमी और शय्या) जीवों से युक्त होते हुए भी इनकी अचित्त योनि कही गई है। संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय और संज्ञी मनुष्य में एक मिश्र (सचित्ताचित्त) योनि बताई है क्योंकि ये जीव मिश्र पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं। यथा - रक्त (रज) सचित्त व वीर्य (शुक्र) अचित्त होने से मिश्र आहार कहा जाता है। निगोद जीवों में सभी में मात्र सचित्त योनि ही होती है। क्योंकि निगोद के उत्पत्ति का स्थान पहले अप्काय युक्त होता है उसी स्थान में निगोद के जीव उत्पन्न होते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org