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________________ २५६ प्रज्ञापना मृत्र .......................000000000. ___ पहली आहार संज्ञा वेदनीय कर्म के उदय से, दूसरी से आठवीं तक सात संज्ञा मोहनीय कर्म के उदय में, ओघ संज्ञा दर्शनावरणीय के क्षयोपशम भाव से और लोक संज्ञा ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम भाव से होती है। नैरयिकों में संज्ञाएं णेरइयाणं भंते! कइ सण्णाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ। तंजहा - आहारसण्णा जाव ओघसण्णा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों में कितनी संज्ञाएं कही गई है? उत्तर - हे गौतम! नैयिकों में दस संज्ञाएं कही गई है। वे इस प्रकार हैं - आहार संज्ञा यावत् आंत्र संज्ञा। असुरकुमार आदि में संज्ञाएं असुरकुमाराणं भंते! कइ सण्णाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ तंजहा - आहारसण्णा जाव ओघसण्णा, एवं जाव थणियकुमाराणं। एवं पुढविकाइयाणं जाव वेमाणियावसाणाणं णेयव्वं ॥३३८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! असुरकुमारों में कितनी संज्ञाएं कही गई है? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार देवों में दस संज्ञाएं कही गई है। वे इस प्रकार हैं - आहार संज्ञा यावत् ओघ संज्ञा। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक कहना चाहिए। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों से लेकर यावत् वैमानिक देवों पर्यन्त समझ लेना चाहिए। अर्थात् चौबीस दण्डक के जीवों में दसों प्रकार की संज्ञाएं पाई जाती है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चार ही गति के जीवों में पायी जाने वाली संज्ञाओं का कथन किया गया है। सामान्य रूप से सभी संसारी जीवों में दसों ही संज्ञाएं पायी जाती है। एकेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएं अव्यक्त रूप से होती है जबकि पंचेन्द्रिय जीवों में ये स्पष्ट जानी जाती है। ___ आहार आदि संज्ञाओं के उत्पन्न होने के चार-चार कारण ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे के चौथे उद्देशक में बताये हैं वे इस प्रकार हैं - .. आहार संज्ञा के चार कारण - १. पेट खाली होने से, २. क्षुधा वेदनीय के उदय से, ३. आहार की कथा सुनने और आहार को देखने से और ४. सदैव आहार का चिन्तन करने से आहार संज्ञा उत्पन्न होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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