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________________ छठा व्युत्क्रांति पद - आकर्ष द्वार २३५ .......... ............" रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं और कदाचित् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर पारभविक आयुष्य का बन्ध करते हैं। यावत् अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहने पर परभव का आयुष्य का बन्ध तो करते ही हैं। ___ मनुष्यों का पारभविक आयुष्य बन्ध-सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। .. वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के परभव का आयुष्यबन्ध नैरयिकों के समान कहना चाहिए। अर्थात् छह मास आयुष्य शेष रहने पर आयुष्य का बन्ध करते हैं। विवेचन - नरक के नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव अपनी अपनी आयु के छह मास शेष रहने पर परभव का आयुष्य बांधते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और तीन विकलेन्द्रिय के जीव के सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की आयु होती है इनमें जो निरुपक्रम आयु वाले होते हैं वे अपनी अपनी आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। सोपक्रम आयु वाले कभी अपनी आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर, कभी अपनी आयु के तीसरे भाम का तीसरा भाग यानी नवाँ भाग शेष रहने पर और कभी अपनी आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग यानी सताईसवाँ भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्य बांधते हैं। कभी अपनी आयु के सताईसवें भाग का तीसरा भाग यानी इक्यासीवां भाग शेष रहने पर, कभी इक्यासीवें भाग का तीसरा भाग यानी २४३ वाँ भाग शेष रहने पर और कभी २४३ वें भाग का तीसरा भाग यानी ७२९ वाँ भाग शेष रहने पर यावत् अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य संख्यात वर्ष की आयु वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। वे अपनी आयु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य निरुपक्रम और सोपक्रम-दोनों प्रकार की आयु वाले होते हैं। पृथ्वीकाय की तरह ये दोनों कह देना चाहिए। ॥ सातवां द्वार समाप्त॥ आठवाँ आकर्ष द्वार कइविहे णं भंते! आउयबंधे पण्णत्ते? गोयमा! छव्विहे आउयबंधे पण्णत्ते। तंजहा - १ जाइणाम णिहत्ताउए, २ गइणाम णिहत्ताउए, ३. ठिईणाम णिहत्ताउए, ४. ओगाहणणाम णिहत्ताउए, ५. पएसणाम णिहत्ताउए, ६. अणुभावणाम णिहत्ताउए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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