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________________ छठा व्युत्क्रांति पद - उद्वर्त्तना द्वार उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते किन्तु तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसी प्रकार जैसा इनका उपपात कहा है, वैसी ही इनकी उद्वर्त्तना भी कहनी चाहिए। इसी प्रकार अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रियों की भी उद्वर्त्तना कहनी चाहिए । इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक की भी उद्वर्त्तना कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि वे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं । पंचिंदियतिरिक्खजोणियां णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जंति, किं णेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्ख जोणिएसु उववज्जंति, मणुस्सेसु उववज्जंति देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! णेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति । - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक अनन्तर उद्वर्त्तना करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच योनिकों में, मनुष्यों में देवों में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों में भी उत्पन्न होते हैं। जइ पोरइएस उववज्जंति किं रयणप्पभा पुढवी णेरइएसु उववज्जंति जाव अहेसत्तमा पुढवी णेरइएस उववज्जंति ? गोयमा ! रयणप्पा पुढवी णेरइएस उववज्जंति जाव अहेसत्तमा पुढवी णेरइएसु उववज्जंति । २२७ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं यावत् अधः सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! वे रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् अधः सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं । जड़ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति किं एगिंदिएसु उववज्जंति जाव पंचिंदिएसु उववज्जंति ? गोयमा! एगिंदिएसु उववज्जंति जाव पंचिंदिएसु उववज्जंति । एवं जहा एएसिं चेव उववाओ उव्वट्टणावि तहेव भाणियव्वा, णवरं असंखिज्जवासाउएसु वि एए उववजंति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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