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________________ २१२ प्रज्ञापना सूत्र जइ मणुस्सेहिंतो उववजति किं सम्मुच्छिम मणुस्सेहिंतो उववजति, गब्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववजंति? गोयमा! दोहितो वि उववजंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! यदि पृथ्वीकायिक जीव मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूछिम मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर- हे गौतम! दोनों से आकर उत्पन्न होते हैं। जई' गब्भवक्कंतिय मणुस्सेहिंतो उववजंति किं कम्मभूमग गब्भवक्कंतिय मणुस्सेहिंतो उववजंति, अकम्मभूमग गब्भवक्कंतिय मणुस्सेहितो उववजंति? सेसं जहा णेरइयाणं णवरं अपजत्तएहितो वि उववजंति॥३१३॥ . भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव यदि गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! जैसा नैरयिकों के उपपात के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। विशेष यह है कि अपर्याप्तक कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। जइ देवेहिंतो उववजंति किं भवणवासी देवेहिंतो उववजंति, वाणमंतर देवेहितो उववजंति, जोइसिय देवेहिंतो उववजंति, वेमाणिएहितो उववजंति? गोयमा! भवणवासीदेवेहितो वि उववनंति जाव वेमाणिय देवेहितो वि उववति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक यदि देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? वाणव्यंतर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? ज्योतिषी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? या वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? उत्तर - हे गौतम! भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न आकर होते हैं। जइ भवणवासीदेवेहिंतो उववजंति किं असुरकुमार देवेहितो उववजंति जाव थणियकुमार देवेहितो उववजंति? गोयमा! असुरकुमार देवेहितो वि उववजंति जाव थणियकुमार देवेहितो वि उववजंति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव यदि भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या असुरकुमार देवों से आकर उत्पन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार देवों से आकर उत्पन्न होते हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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