________________
चौथा स्थिति पद - देवों की स्थिति
0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
प्रश्न- मूल पाठ में 'अहेसत्तमा पुढवी' शब्द दिया है इसका क्या कारण ?
उत्तर - स्थानांग सूत्र के आठवें स्थान में पृथ्वियाँ आठ बतलाई गई हैं। रत्नप्रभा आदि आठवीं पृथ्वी का नाम "ईसिपब्भारा" ( ईषत् प्राग् भारा) दिया है। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ अधोलोक में नीचे हैं। तमस्तमाप्रभा सातवीं पृथ्वी है वह सबसे नीचे है यह बात बतलाने के लिए मूल में" आहे" शब्द दिया है जिसका अर्थ है " अधः " अर्थात् नीचे। ये सभी पृथ्वियाँ अधोलोक में नीचे हैं परन्तु सातवीं पृथ्वी सबसे नीचे हैं। यह बात बतलाने के लिए इसके साथ "अहे (अधः ) " शब्द दिया है । ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी अधोलोक में नीचे नहीं है किन्तु ऊर्ध्व लोक में है और सबसे ऊपर है। इसके एक योजन ऊपर अलोक आ गया है। उस एक योजन के चौबीस भाग करने पर चौबीसवें भाग में सिद्ध भगवन्तों के आत्म प्रदेशों की अवगाहना है । उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष, एक हाथ आठ अंगुल (३२ अंगुल) है और जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुल है। बीच की अर्थात् एक हाथ नौ अंगुल से लेकर ३३३ धनुष ३१ अंगुल तक सब मध्यम अवगाहना है । सब सिद्ध भगवन्तों के आत्म प्रदेशों की अवगाहना एक सरीखी नहीं है। इसलिए उववाई सूत्र में सिद्ध भगवन्तों के आत्म-प्रदेशों की अवगाहना का संस्थान 'अनित्थंस्थ' बतलाया गया है।
1
प्रश्न- सिद्ध भगवन्तों के आत्म प्रदेशों की अवगाहना का आकार किस प्रकार होता है ?
उत्तर - १३ वें गुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहते योगों का निरोध करते हुए जो आत्म-प्रदेशों का दो तिहाई भाग में घन (ठोस) किया हुआ व्यक्ति चाहे खडा हो, बैठा हो, सोता हो, सीधा सोता हो या उल्टा सोता हुआ हो और यहाँ तक कि किसी देव द्वारा संहरण किया हुआ व्यक्ति समुद्र आदि में नीचे माथा और ऊपर पैर की हुई अवस्था में डाला जाता हो। कहने का अभिप्राय यह है कि, किसी भी दशा में हो परन्तु सिद्ध होते समय खड़े पुरुष के आकार से आत्म-प्रदेशों की अवगाहना बन जाती है । सब सिद्ध भगवन्तों के मस्तक के आत्म- प्रदेश अलोक से अड़े हुए हैं और पैरों के आत्म- प्रदेश सबसे नीचे हैं।
देवों की स्थिति
देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । अपज्जत्तय देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
• गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तय देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?
९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org