SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० प्रज्ञापना सूत्र मनुष्य की आयुष्य बंधे हुए जीव नहीं होने के कारण उत्पत्ति के योग्य स्थान होते हुए भी अधिक से अधिक २४ मुहूर्त तक नये जीव सम्मूछिम मनुष्य के रूप में उत्पन्न नहीं होते हैं। गब्भवक्कंतिय मणुस्सा णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता॥ २८७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! गर्भज मनुष्य कितने काल तक उत्पत्ति रहित कहे गये हैं ? . उत्तर - हे गौतम! गर्भज मनुष्य का उपपात विरह काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त का कहा गया है। वाणमंतरा णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहत्ता। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! वाणव्यंतर देव कितने काल तक उपपात-उत्पत्ति से रहित कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! वाणव्यंतर देव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक उत्पत्ति से रहित कहे गये हैं। जोइसियाणं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ज्योतिषी देवों का उपपात विरह काल कितना कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! ज्योतिषी देवों का उपपात विरह काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस . मुहूर्त का कहा गया है। सोहम्मे कप्पे देवा णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्म कल्प में देव कितने काल तक उत्पत्ति से रहित कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! सौधर्म कल्प (पहले देवलोक) में देव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक उपपात से रहित कहे गये हैं। ईसाणे कप्पे देवा णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ईशान कल्प (दूसरा देवलोक) में देव कितने काल तक उत्पत्ति से रहित कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! ईशान कल्प में देव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक उपपात से रहित कहे गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy