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________________ १७४ देव गईणं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता । प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ:- - प्रश्न - हे भगवन्! देव गति कितने काल तक जीवों की उत्पत्ति से रहित कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त तक उपपात से विरहित कही गई है। सिद्धि गई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया सिज्झणाए पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं. एगं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा ॥ २८०॥ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्धि गति कितने काल तक जीवों की सिद्धि से रहित कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्धि गति जीवों के सिद्ध होने से रहित कही गई है। विवेचन - प्रश्न उपपात किसे कहते हैं ? उत्तर - जीव पूर्व भव से आकर उत्पन्न हो, उसे 'उपपात' कहते हैं । अर्थात् किसी अन्य गति से मर कर नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव रूप में उत्पन्न होना उपपात कहलाता है । सिद्ध भगवन्त तो उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु सिद्धि गति में जाकर आत्म स्वरूप में स्थित हो जाते हैं। इसको सिद्धत्व होना कहते हैं । प्रश्न - नरक गति में उपपात विरह काल का क्या आशय है ? - उत्तर - नरक गति में उपपात के विरह काल का अर्थ है - जितने समय तक किसी भी नये नैरयिक का जन्म नहीं होता अर्थात् नरक गति नये नैरयिक के जन्म से रहित जितने काल तक होती है वह नरक गति में उपपात विरह काल कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में चारों ही गति के उपपात विरह काल का वर्णन किया गया है तथा सिद्धि गति में सिद्धत्व होने का विरह काल कहा गया है। नरक आदि चारों गतियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त्त तक उपपात का विरह पड़ता है । अर्थात् बारह मुहूर्त्त के बाद कोई न कोई जीव नरक आदि गतियों में उत्पन्न होता ही है । सिद्धि गति उत्कृष्ट छह मास तक सिद्धत्व होने रहित होती है। छह मास के बाद अवश्य ही कोई न कोई जीव सिद्ध होता ही है । णिरय गई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उव्वट्टणाए पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता । Jain Education International भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नरक गति कितने काल तक उद्वर्तना-मरण रहित कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! नरक गति जघन्य एक समय उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक उद्वर्तना रहित कई गई है । अर्थात् बारह मुहूर्त्त तक सातों ही नरकों में से कोई भी जीव नहीं निकलता है। तिरिय गई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उव्वट्टणाए पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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