SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य गुण शीत द्विप्रदेशी स्कन्धों के पर्याय १६१ .. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णगुणसीयाणं परमाणु पुग्गलाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णगुणसीए परमाणु पुग्गले जहण्णगुणसीयस्स परमाणुपुग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्ण गंध रसेहिं छट्ठाणवडिए, सीय फास पजवेहि य तुल्ले, उसिणफासो ण भण्णइ, णिद्ध लुक्ख फास पवेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसगुणसीए वि। अजहण्णमणुक्कोसगुणसीए वि एवं चेव, णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य गुण शीत परमाणु पुद्गलों के पर्याय अनन्त हैं ? ___ उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य गुण शीत परमाणु पुद्गल दूसरे जघन्य गुण शीत परमाणु पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध और रसों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, शीत स्पर्श के अपेक्षा से तुल्य है। इसमें उष्ण स्पर्श का कथन नहीं करना चाहिए। क्योंकि शीत स्पर्श का विरोधी उष्ण स्पर्श है क्योंकि जहाँ शीत स्पर्श पाया जाता है वहाँ उष्ण स्पर्श नहीं पाया जाता है और जहाँ उष्ण स्पर्श पाया जाता है वहाँ शीत स्पर्श नहीं पाया जाता है। स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट गुण शीत परमाणुपुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए। मध्यम गुण शीत. परमाणु पुद्गलों के पर्यायों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कह देना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हीनाधिक है। जघन्य गुण शीत द्विप्रदेशी स्कन्धों के पर्याय जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं पुग्गलाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य गुण शीत द्विप्रदेशिक स्कन्धों के पर्याय कितने कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य गुण शीत द्विप्रदेशिक स्कन्धों के पर्याय अनन्त कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं पुग्गलाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy