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________________ १४४ प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! जैसे जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों की पर्यायविषयक वक्तव्यता कही है, वैसी ही वक्तव्यता जघन्य अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के विषय में कह देनी चाहिए। इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए । इसी तरह मध्यम अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी कह देना चाहिए। जघन्य आदि अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी पुद्गलों के पर्याय जहण्णोगाहणगाणं भंते! चउपएसियाणं पुग्गलाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा जहण्णोगाहणए दुपएसिए तहा जहण्णोगाहणए चउप्पएसिए, एवं जहा उक्कोसोगाहणए दुपएसिए तहा उक्कोसोगाहणए चउप्पएसिए वि । एवं अजहण्णमणुक्को सोगाहणए वि चउप्पएसिए, णवरं ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जड़ हीणे पएसहीणे, अह अब्भहिए पएसअब्भहिए। एवं जाव दसपएसिए णेयव्वं, णवरं अजहण्णुक्कोसोगाहणए पएसपरिवुड्डी कायव्वा जाव दस पएसियस्स सत्त पएसा परिवढिज्जति । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले चतुः प्रदेशी पुद्गलों के पर्याय कितने कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले चतुः प्रदेशी पुद्गलों के पर्याय जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के पर्याय की तरह समझना चाहिए। जिस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के पर्यायों का कथन किया गया है, उसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले चतुः प्रदेशी पुद्गल - पर्यायों का कथन करना चाहिये । इसी प्रकार मध्यम अवगाहना वाले चतुः प्रदेशी स्कन्ध का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य, कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन होता है, यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक होता है। इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि मध्यम अवगाहना वाले के एक-एक प्रदेश की परिवृद्धि करनी चाहिए। इस प्रकार यावत् दश प्रदेशी तक सात प्रदेश बढ़ते हैं । विवेचन - मध्यम अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी स्कन्धों की हीनाधिकता - चतुः प्रदेशी स्कन्ध की जघन्य अवगाहना एक प्रदेश में और उत्कृष्ट अवगाहना चार प्रदेशों में होती है। मध्यम अवगाहना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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