SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां विशेष पद - द्वि प्रदेशी स्कन्ध के पर्याय १३३ प्रदेश हीन परमाणु में अनन्त पर्याय कैसे? - परमाणु को जो 'अप्रदेशी' कहा गया है, वह सिर्फ द्रव्य की अपेक्षा से है, काल और भाव की अपेक्षा से वह अप्रदेशी या निरंश नहीं है। ___परमाणु चतुःस्पर्शी और षट्स्थानपतित - एक परमाणु में आठ स्पर्शों में से सिर्फ चार स्पर्श ही होते हैं। वे ये हैं - शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष। बल्कि असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध तक में ये चार ही स्पर्श होते हैं। कोई-कोई (सूक्ष्म) अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी चार स्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार एक प्रदेशावगाढ़ से लेकर संख्यात प्रदेशावगाढ़ पुद्गल स्कन्ध भी चार स्पर्शों वाले होते हैं। अतः इन अपेक्षाओं से परमाणु को षट्स्थानपतित समझना चाहिए। द्वि प्रदेशी स्कन्ध के पर्याय दुपएसियाणं पुग्गलाणं भंते ! केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! दुपएसियाणं पुग्गलाणं अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! द्विप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ दुपएसियाणं पुग्गलाणं अणंता पजवा पण्णत्ता? गोयमा! दुपएसिए दुपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ हीणे पएसहीणे, अह अब्भहिए पएसमब्भहिए। ठिईए चउट्ठाणवडिए, वण्णाईहिं उवरिल्लेहिं चउफासेहिं य छट्ठाणवडिए। एवं तिपएसिए वि, णवरं ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए। जइ हीणे, पएसहीणे वा, दुपएसहीणे वा, अह अब्भहिए पएसमब्भहिए वा, दुपएसमब्भहिए वा। एवं जाव दसपएसिए, णवरं ओगाहणाए पएसपरिवुड्डी कायव्वा जाव दसपएसिए, णवरं णवपएसहीणेत्ति। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? उत्तर - हे गौतम! एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से, द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है। यदि हीन हो तो एक प्रदेश हीन होता है। यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है, वर्ण आदि की अपेक्षा से और शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष। स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy