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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्याय १२७ आभिनिबोधिक ज्ञानी, मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी के तुल्य ही हो, ऐसा नियम नहीं है। इसलिए उनमें स्वस्थान में षट्स्थानपतित हीनाधिकता संभव है। जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा से त्रिस्थानंपतित क्यों? - मनुष्यों में सर्वजघन्य अवधिज्ञान पारभविक (पूर्वभव से साथ आया हुआ) नहीं होता, किन्तु वह तद्भव (उसी भव) सम्बन्धी होता है और वह भी पर्याप्त-अवस्था में होता है किन्तु अपर्याप्त अवस्था में उसके योग्य विशुद्धि नहीं होती है तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञान भाव से चारित्रवान् मनुष्य को होता है। इस कारण जघन्य अवधिज्ञानी और उत्कृष्ट अवधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा त्रिस्थानपतित ही होते हैं, किन्तु मध्यम अवधिज्ञानी चथुःस्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवधिज्ञान पारभविक भी हो सकता है, अतएव अपर्याप्त अवस्था में भी संभव है। स्थिति की अपेक्षा से जघन्यादि युक्त अवधिज्ञानी मनुष्य त्रिस्थानपतित क्यों? - अवधिज्ञान असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में संभव नहीं क्योंकि वे युगलिक होते हैं। वह संख्यातवर्ष की आयु वालों को ही होता है। अतः जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों में संख्यात वर्ष की आयु की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हीनाधिकता ही हो सकती है, चतुःस्थानपतित नहीं। जघन्यादि युक्त मनःपर्यवज्ञानी स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित - मनःपर्यायज्ञान चारित्रवान् मनुष्यों को ही होता है और चारित्रवान् मनुष्य संख्यातवर्ष की आयु वाले ही होते हैं। अत: जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट मनःपर्यायज्ञानी मानव स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित ही होते हैं। केवलज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित क्यों और कैसे ? - यह कथन केवली समुद्घात की अपेक्षा से है, क्योंकि केवली समुद्घात करता हुआ केवलज्ञानी मनुष्य, अन्य केवली मनुष्यों की अपेक्षा असंख्यात गुणी अधिक अवगाहना वाला होता है और उसकी अपेक्षा अन्य केवली असंख्यात गुण हीन अवगाहना वाले होते हैं। अतः अवगाहना की दृष्टि से केवलज्ञानी मनुष्य चतुःस्थानपतित होते हैं। स्थिति की अपेक्षा केवली मनुष्य त्रिस्थानपतित - सभी केवली संख्यात वर्ष की आयु वाले ही होते हैं, अतएव उनमें स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित हीनाधिकता संभव नहीं है। इस कारण वे त्रिस्थानपतित हीनाधिक हैं। . वाणमंतरा जहा असुरकुमारा। एवं जोइसिय वेमाणिया, णवरं सट्ठाणे ठिईए तिट्ठाणवडिए भाणियव्वा। से तं जीवपज्जवा॥२६५॥ भावार्थ - वाणव्यन्तर देवों में पर्यायों की प्ररूपणा असुरकुमार देवों के समान समझ लेनी चाहिए। ज्योतिषी देवों और वैमानिक देवों में पर्यायों की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की समझनी चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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