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प्रज्ञापना सूत्र
उत्तर - हे गौतम! केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं।
से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-केवलणाणीणं मणुस्साणं अणंता पजवा पण्णत्ता?'
गोयमा! केवलणाणी मणुस्से केवलणाणिस्स मणुसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चट्ठाणवडिए, ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्ण गंध रस फास पजवेहिं छट्ठाणवडिए, केवलणाणपजवेहिं केवलदसणपजवेहिं च तुल्ले। एवं केवलदसणी वि मणुस्से भाणियव्वे।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं? .. उत्तर - हे गौतम! केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं।
प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि 'केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त, पर्याय कहे गये हैं ?'
उत्तर - हे गौतम! एक केवलज्ञानी मनुष्य, दूसरे केवलज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति का अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है एवं केवलज्ञान के पर्यायों और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। ,
जैसे केवलज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में कहा गया है, वैसे ही केवलदर्शनी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में कह देना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम ज्ञान आदि वाले मनुष्यों के पर्यायों की . विविध अपेक्षाओं से प्ररूपणा की गई है।
- जघन्य और उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्यों में ज्ञानादि का अन्तर - जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य के प्रबल ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने से उसमें अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान नहीं होते जबकि उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य में तीन ज्ञान और तीन दर्शन होते हैं।
उत्कृष्ट आभिनिबोधिक मनुष्य त्रिस्थानपतित - क्योंकि उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य नियमत: संख्यातवर्ष की आयु वाला ही होता है। संख्यातवर्ष की आयु वाला मनुष्य स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित ही होता है, किन्तु जो असंख्यातवर्ष की आयु वाला होता है, उसमें भवस्वभाव के कारण उत्कृष्ट आभिनिंबोधिक ज्ञान नहीं होता।
मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य स्वस्थान में षट्स्थानपतित - जैसे एक उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य, दूसरे उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी से तुल्य होता है, वैसे मध्यम
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