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________________ पांचवां विशेष पदे - जघन्य आदि अवगाहना वाले नैरयिकों के पर्याय ९७ मध्यम स्थिति वाले नैरयिक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि स्वस्थान में चतुःस्थानपतित है। विवेचन - जघन्य स्थिति वाले एक नैरयिक से, जघन्यस्थिति वाला दूसरा नैरयिक स्थिति की अपेक्षा से समान होता है क्योंकि जघन्य स्थिति का एक ही स्थान होता है, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता संभव नहीं है। एक जघन्य स्थिति वाला नैरयिक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नैरयिक से अवगाहना में पूर्वोक्त व्याख्यानुसार चतुःस्थानपतित हीनाधिक होता है, क्योंकि उनमें अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर उत्कृष्ट ७ धनुष तक पाई जाती है। जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले नैसयिकों की स्थिति तो परस्पर तुल्य कही गई है, मगर मध्यम स्थिति वाले नैरयिकों की स्थिति में परस्पर चतुःस्थानपतित हीनाधिक्य है, क्योंकि मध्यम स्थिति तारतम्य से अनेक प्रकार की है। मध्यमस्थिति में एक समय अधिक दस हजार वर्ष से लेकर एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति परिगणित है। इसलिए इसका चतुःस्थानपतित हीनाधिक होना स्वाभाविक है। .. जहण्णगुणकालगाणं भंते! णेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जघन्यगुण काले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्यगुण काले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'जहण्णगुणकालगाणं णेरइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता'? गोयमा! जहण्णगुणकालए णेरइए जहण्णगुणकालगस्स णेरड्यस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए, कालवण्ण पजवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फास-पज्जवेहिं तिहिं णाणेहिं, तिहिं अण्णाणेहिं, तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए, ... प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं? .. उत्तर - हे गौतम! एक जघन्यगुण काला नैरयिक, दूसरे जघन्यगुण काले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है किन्तु अवशिष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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