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पांचवां विशेष पद - बेइन्द्रियों के पर्याय
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भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?
उत्तर - हे गौतम! एक वनस्पतिकायिक दूसरे वनस्पतिकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, किन्तु अवगाहना की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है तथा स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है किन्तु वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तथा मति - अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थान - पतित है ।
इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।
विवेचन प्रस्तुत सूत्रों में क्रमशः अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की अनंत अनंत पर्यायों का वर्णन किया गया है।
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इन जीवों में अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से एवं मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थान पतित हीनाधिकता पृथ्वीकायिक जीवों (सूत्र क्रमांक २५०) के अनुसार समझ लेनी चाहिए।
बेइन्द्रियों के पर्याय
इंदियाणं भंते! केवड्या प नवा पण्णत्ता ?
गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता ।
भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! बेइन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ?
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उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।.
सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ- 'बेइंदियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता'?
गोयमा ! बेइंदिए बेइंदियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जड़ हीणे असंखिज्जइ भागहीणे वा संखिज्ज भागहीणे वा संखिज्जइ गुणहीणे वा असंखिज्जइ गुणहीणे वा । अह अब्भहिए असंखिज्ज भाग अब्भहिए वा संखिज्जइ भाग अब्भहिए वा संखिज्ज गुणमब्भहिए वा असंखिज्जइ
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मह वा । ठई तिट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रस- फास - आभिणिबोहियणाणसुयणाण-मइअण्णाण - सुयअण्णाण - अचक्खुदंसण पज्जवेहिं य छट्ठाणवडिए । एवं इंदिया वि । एवं चउरिदिया वि, णवरं दो दंसणा, चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं च । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा णेरइयाणं तहा भाणियव्वा ॥ २५५ ॥
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