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४८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नुगामी श्रमणों, मनीषियों ने नीति के इन प्रत्ययों पर गम्भीर विचार किया है और सुखी जीवन के लिए इनकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। जैन नीति के मूल तत्व
उपरोक्त सामान्य और विशिष्ट नीति के सिद्धान्तों को भली भांति हृदयंगम करने के लिए यह अधिक उपयोगी होगा कि जैन नीति अथवा भगवान महावीर की नीति के मूल आधारभूत तत्वों को इनके हार्द को समझ लिया जाय।
जैन नीति के मूल तत्व हैं, पुण्य, संवर और निर्जरा । ध्येय है-मोक्ष और आस्रव, बन्ध तथा पाप अनैतिक तत्व हैं । जैन नीति का सम्पूर्ण भवन इन्हीं पर टिका हुआ है।
पाप अनैतिक है, पुण्य नैतिक, आश्रव अनैतिक है, संवर नैतिक, बंध अनैतिक है, निर्जरा नैतिक । इस सूत्र के आधार पर ही सम्पूर्ण जैननीति को समझा जा सकता है।
पाप और पुण्य शब्दों का प्रयोग तो संसार की सभी नीति और धर्मपरम्पराओं में हुआ है। सभी ने पाप को अनैतिक बताया और पूण्य की गणना नीति में की है। यह बात अलग है कि उनकी पाप पुण्य की परिभाषाओं में अन्तर है । इनकी परिभाषायें उन्होंने अपनी-अपनी परम्पराओं में बँधकर की है।
किन्तु आस्रव संवर और निर्जरा ये जैन नीति के विशेष शब्द हैं। इनका अर्थ समझ लेना अभीष्ट होगा।
आस्रव का नीतिपरक अभिप्राय है-वे सभी क्रियाएँ, जिनको करने से व्यक्ति का स्वयं का जीवन दुःखी हो, समाज में अव्यवस्था फैले, आतंक बढ़े, उग्रवाद पनपे, समाज के, देश के, राष्ट्र, राज्य और संसार के अन्य प्राणियों का जीवन उत्पीडित व दुःखी हो जाय, वे कष्ट में पड़ जायं ।
जैन-नीति ने आस्रवों के प्रमुख पांच भेद माने हैं(१) मिथ्यात्व (गलत धारणा) (२) अविरति (आत्मानुशासन का अभाव) (३) प्रमाद (जागरूकता का अभाव-असावधानी)
(४) कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ आदि मानसिक संक्लेश) और
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