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४२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(३) मात-पिता तथा शिक्षकों का सम्मान करना
इन तीन सिद्धान्तों को ही पाश्चात्य नीति का आधार कहा जा सकता है।
___ उसके उपरान्त प्लेटो ने नीति के सिद्धान्तों को कुछ आगे बढ़ाया । उसने नीति को समाज का समन्वयकारी तत्त्व अथवा विधि स्वीकार किया और नीति के साथ न्याय (just) को भी परिभाषित किया। किन्तु इसके बाद यूनानी सभ्यता का पतन हो गया और यूरोप में अराजकता छा गई। परिणामस्वरूप नीति के विषय में भी कोई काम न हो सका।
तदुपरान्त ईसा की सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जब पुनर्जागरण (Renaissance) हआ तो नीति के क्षेत्र में भी काम हुआ । शापेनहावर,कांट, स्पिनोजा आदि ने नीति सम्बन्धी सिद्धान्त, प्रत्यय आदि निर्धारित किये।
इस ऐतिहासिक विवेचन से स्पष्ट है कि पाश्चात्य नीतिशास्त्र का विकास, जितना भी दिखाई देता है, वह सब आधुनिक काल में ही हुआ है, उसका कोई विशेष सुदृढ़ प्राचीन आधार दृष्टिगोचर नहीं होता।
किन्तु जैसाकि डा. दिवाकर पाठक लिखते हैं___ “पश्चिमी विचारक प्रायः भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के अध्ययन की कमी के कारण प्रत्येक ज्ञान-विज्ञान का श्रीगणेश यूनान की संस्कृति से ही मानते हैं। इन लोगों के अनुसार आचार-सम्बन्धी दार्शनिक सिद्धान्तों (और नैतिक सिद्धान्तों का भी) का प्रतिपादन सबसे पहले यूनान में ही हुआ। किन्तु इस विचारधारा में आंशिक सत्यता है ।"2
अपने मत की पुष्टि में वे अमेरिकी विद्वान होपकिन्स का निम्न कथन प्रस्तुत करते हैं--
"यद्यपि पश्चिम ने भारतीय मस्तिष्क (चिन्तन) को वर्षों पूर्व ढूंढ़ निकाला था और आज भी अगणित बौद्ध गाथाओं की चर्चा करता है; तथापि भारतीय धर्मों के अन्तरंग का पूर्ण परिचय कम ही लोगों को है। बहत-से लोग यह भी नहीं जानते कि भारतीयों ने क्या चिन्तन किया और क्या कहा है ? जहाँ तक भारतीय नीतिशास्त्र का सम्बन्ध है, वह यूरोप और अमेरिका के लिए अधिकांशतः अज्ञात क्षेत्र है। यह जान कर अधिकांश लोगों को खुशी होगी कि ईसा युग से बहुत पूर्व भारत में १ डा० रामनाथ शर्मा : पाश्चात्य नीतिशास्त्र, पृ. १ २. डा. दिवाकर पाठक : भारतीय नीतिशास्त्र पृ. ५
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