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________________ नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास | २१ का ज्ञान प्रारम्भ होता है। ऋग्वेद के अतिरिक्त सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद-यह तीन वेद और हैं। वेद प्रमुख रूप से प्रार्थना ग्रन्थ हैं। उनमें सूर्य (सविता),अग्नि, इन्द्र, आदि देवताओं से सुख समृद्धि की, शत्रुओं पर विजय की प्रार्थनाएँ की गई हैं और तत्सम्बन्धी मंत्रों (ऋचाओं) का संकलन किया गया है। ऐसे मन्त्र बहुत कम हैं, जिनका नीति से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जा सके । फिर भी कुछ मन्त्र उद्धृत किये जा सकते हैं, यथासत्यकर्म प्रेरणा 'वह देव तुमको श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कार्यों को करने की प्रेरणा करें। सत्य को प्रेरणा मैं झूठ से सत्य की ओर जाता हूँ। अन्य लोगों की सेवा के लिए ऋग्वेद में कहा गया है 'अज्ञानी व्यर्थ अन्न को इकट्ठा करता है, मैं सत्य कहता हूँ वह उसका नाश करने वाला है । जो अन्न न अतिथि को पुष्ट करता है और न मित्रों को, उसे अकेले खाने वाला पाप करता है।' इस सूक्त में संग्रहवृत्ति का निषेध झलकता है। सामूहिकता सम्बन्धी एक मन्त्र अथर्ववेद में प्राप्त होता है'तुम सबका पानी पीने का स्थान एक हो, भोजन एक साथ करो।' इस सक्त में सामूहिकता और मेल-मिलाप की भावना व्यक्त हुई है। वस्तुतः वेदों में नीति सम्बन्धी बहु प्रचलित तीन सूक्त हैं तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतंगमय असतो मा सद्गमय 1. ....a moralising note....is otherwise quite foreign to Rigveda, The Rigveda is every thiing but a text book of morals. , -A Histcry of Indian Literature Vol. I, 1927, p. 115 २. यजुर्वेद ११ ३. यजुर्वेद १५ ४. ऋग्वेद १०।११७।६ ५. अथर्ववेद ११३०१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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