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परिशिष्ट : हिन्दी साहित्य की सूक्तियां | ४६७
पागल करि मोहे करै खराब । क्यों सखि साजन? नहीं शराब।।
-भारतेन्दु सुधा, पृ. ३२ मन
मन सौं मित्त न कोइ, जो अपने बस होत है । कहे माहिं ना होइ, तो ऐसौ अरि और ना ॥
-जान सत्तवाना मन के कंटक
तुष्टहिं निज रुचि काज करि रुष्टहिं काज बिगारि । तिया तनय सेवक सखा, मन के कंटक चारि ॥
-तुलसी सतसई ७/२६ मनुष्य
रन-रन सूर न होत हैं, जन-जन होत न भक्त हरि। नंद सकल सुनो नरहरि कहत; सब नर होत न एक सरि ॥
--कविता कौमुदी भा० १, पृ. २२६ माता-पिता
मातु-पिता मन पोषिहे, बहुत करै मनुहार । तापर निहचे होत है दयावन्त करतार ।।
-जान सतवाना मानव दशा
पुरुष भवे प्रायीक बरस चालीसां मीठो । कड़वो होय पचास साठ तिहां क्रोध पइठो ॥ सतरां सगो न कोय, असीआं आस न कोई । नांह नब्बे में होय, हंसे तिहाँ लोग-लुगाई ॥ सौ हुओ-सौ हुओ सब को कहें, सब तन हो गयो जोजरो। घर की पतिव्रता यूँ कहे, ओ मरै तो सुधारै डोकरौ ।।
-भाषा श्लोक सागर
माया
माया भ्रम को मूल, भ्रम बिनु जाय न दुक्ख जग। रे मन मायाबन्ध, तजहु भजहु मायापतिहि ।।
-नीति छन्द०
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