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४६६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
प्रेम
बुद्धिहीन
बोली
भाई
भाग्य
प्रीति सुखद है सुजन की, दिन-दिन होय कबहुँ मेटे ना मिटे ज्यों
मदिरापान
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विशेष |
पाहन की रेष ॥
विधि निषेध नहीं जानही, कुवचन अपकारी क्रोधी निलज, लच्छन
जो लायक जिहि बात को सज्जन सौं न बुरी करै दुर्जन
- दृष्टान्त तरंगिणी १०६
गरब विरोध । अबोध ||
आठ
निकारि ।
रतनावलि कांटो लग्यो बैदनु दियो वचन लगौ निकस्यौ न कहुँ उन डारो हिय फारि ॥
-- व्रजं सतसई ४७
- रत्नावली दोहा०, ३६ तासों तैसी होय । भली न कोय |
बात कहन की रीति में, है अन्तर अधिकाय । एक वचन तैं रिस बढ़े, एक वचन ते जाय ॥
—वृन्द सतसई १०ε
भाई सो नहिं मीत, जो अपने अनुकूल हो । भाई सौ नहिं तीत, जो प्रतिकूल चलन लगे ||
मुंह जब लागे तब नहिं छूटै । जाति मान धन सब कुछ लूटै ॥
—वृन्द सतसई ३२६
लोहा चमकै घिसै से, लकड़ी रगड़े आग । सोना चमके ताप से, श्रम से चमकै भाग ।।
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- नीति छन्द
रतन देव अमृत तिष, विष अमृत बन जात । सूधी हू उलटी परै, उलटी सूधी
बात ||
- रत्नावली दो० ११४
- नीति के दोहे
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