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________________ ४८६ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नीति-पथ चलति नयान्न जिगीषतां चेतः । -किरातार्जुनीय १०/२६ विजय को कामना करने वालों के चित्त नीति-पथ से विचलित नहीं होते। परिवार मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वासरमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ।। -अथर्ववेद ३/३०/३ भाई भाई के साथ द्वेष न करे। बहन बहन से विद्वष न करे । समान गति और समान नियम वाले होकर कल्याणमयी वाणी बोलें। . परोपकारी उपकारस्य धर्मत्वे विवादो नास्ति कस्यचित् । भूतेष्वभयदानेन नान्या चोपकृतिर्मम ।। -कथा सरित्सागर ६/१/२४ उपकार करना धर्म है-इस विषय में किसी को कोई विवाद नहीं है और प्राणियों को अभयदान देने से बढ़कर दूसरा कोई उपकार नहीं है । ___ आपन्नातिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्यत्तमानाम् । –मेघदूत, पूर्वमेघ, ५७ उत्तम मनुष्यों की सम्पत्ति का फल विपत्तिग्रस्त व्यक्तियों के दुःख को शान्त करना है। पुरुषार्थ यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम् । तथा पुरुषकारेण बिना दैवं न सिद्धति ।। -महा० अनुशासन पर्व ६/७ जिस प्रकार बीज बोए बिना क्षेत्रफल-रहित होता है उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता। भाग्य उद्यमः साहसं धैर्य; बुद्धि ः शक्तिः पराक्रमः । षडेते यत्र वर्तन्ते, तत्र दैव सहायकृत् ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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