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________________ ४५२ / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं । तं एवमेव लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए ॥ -उत्तराध्ययन १४/१५ यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है-इस प्रकार व्यर्थ बकवास करते हुए पुरुष को उठाने वाला (काल) उठाकर ले जाता है । इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाय ? सीतंति सुवंताणं अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥ - -बृहत्कल्पभाष्य ३३८३ - जो पुरुष सोते हैं (आलसी हैं) उनके जगत् में सारभूत अर्थ (लक्ष्य) नष्ट हो जाते हैं । इसलिए सतत जागते रहकर पूर्वाजित कर्मों को नष्ट करो। जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं च सूत्तया सेया। -बृहत्कल्पभाष्य ३३८६ धार्मिक जनों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना श्रेयस्कर है। जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी। सो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ।। -बृहत्कल्पभाष्य ३२८३ मानवो ! सदा जागृत (सावधान) रहो। जागृत व्यक्ति की बुद्धि बढ़ती है । जो सोता है वह धन्य नहीं है । सदैव जागने वाला ही धन्य है। अभय भीतो अबितिज्जओ मणूसो, भीतो भूतेहिं घिप्पइ, भीतो अन्न पि भेसेज्जा। -प्रश्नव्याकदण २/२ भयभीत मनुष्य पर अनेकों भय आकर हमला कर देते हैं, क्योंकि डरपोक मनुष्य असहाय होता है। भय से आकुल मानव ही भूतों द्वारा घेर लिया जाता है । स्वयं भयग्रस्त व्यक्ति दूसरों को भी भयभीत कर देता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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