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परिशिष्ट : प्राकृत जैन साहित्य की सूक्तियाँ | ४५१ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो
-दशवकालिक ६/२१ मूर्छा ही वास्तव में परिग्रह है।
जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे। सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण सामाणियं कुणदि ॥
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा १४ जो मनुष्य लक्ष्मी का संचय करके भूमि में उसे गाड़ देता है, वह उस लक्ष्मी को पत्थर के समान कर देता है।
संगनिमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं । सेवइ मेहुण मुच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो ॥
-भक्त परिज्ञा १३२ मनुष्य परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्यधिक मूर्छा करता है। परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवड्ढई ।
-सूत्रकृतांग १/९/३ __ जो संग्रहवृत्ति में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर-भाव बढ़ाते रहते हैं। अप्रमाद उठ्ठिए नो पमायए
-आचारांग १/५/२ कर्तव्य पथ पर चलने को उद्यत हुए व्यक्ति को फिर प्रमाद (आलस्य) नहीं करना चाहिए। जे छेए से विप्पमायं न कुज्जा।
-सूत्रकृतांग १/१४/१ जो प्रमाद (आलस्य) नहीं करता, वह वस्तुतः चतुर है। सिग्घं आरुह कज्जं पारद्ध मा कहं वि सिढिलेसु । पारद्ध सिढिलियाई कज्जाइ पुणो न सिझंति ।।
-वज्जालग्ग १/२ कार्य का प्रारम्भ शीघ्र करो, प्रारम्भ किये हए कार्य में किसी भी प्रकार की शिथिलता मत करो। प्रारम्भ किये हुए कार्यों में एक बार शिथिलता आ जाने पर वे पुनः पूर्ण नहीं हो पाते हैं ।
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