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समस्याओं के समाधान में जैन नीति का योगदान | ४४३
से होता है और इसका चरमोत्कर्ष भी समत्व की उपलब्धि में समाया हुआ है ।
शंकराचार्य की प्रश्नोत्तरी में कहा गया है— कि सुख मूलम् ? समताभिधानम् । सुख का मूल क्या है ? समता ।
वास्तव में समता में सभी सुख हैं और विषमता में सभी दुःख, कष्ट और संघर्ष हैं ।
विषमता चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो अथवा अन्य किसी भी प्रकार की हो, दुःख, कष्ट और संघर्ष का ही कारण बनती | वैचारिक वैमनस्य अथवा विषमता ने कई बार मानव जाति को युद्धों की विभीषिका में झौंका है ।
एक आकलन के अनुसार पिछले २५०० वर्ष के इतिहास में मुश्किल से २८ दिन शांति रही है, अन्यथा विश्व के किसी न किसी कौने में युद्ध होते ही रहे हैं । इनमें से अधिकांश युद्ध वैचारिक विषमता के कारण हुए हैं ।
इसीलिए जैन-नीति ने सुख-शांति के राज मार्ग के लिए समता का प्रत्यय विश्व के समक्ष रखा।
समता द्वारा विषमता का निराकरण करके मानव - सुख की उपलब्धि कर सकता है ।
सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि जैन नीति का आधार अहिंसा है और अहिंसा का हार्द है समत्व । यही अहिंसा की पराकाष्ठा है ।
जैन-नीति का साधक अपने दृढ़ कदम समत्व की उपलब्धि की ओर बढ़ाता है, क्योंकि कहा है
सम्मत्त दंसी न करेई पावं
( संमत्वदर्शी कोई पाप नहीं करता)
और नीति की भाषा में समत्वदर्शी पूर्ण नैतिक होता है | इसी बिन्दु पर मानव को पहुँचाने का लक्ष्य नीतिशास्त्र का है । नीतिशास्त्र, विशेष रूप से जैन नीतिशास्त्र का यही केन्द्र बिन्दु ( Central orbit ) है जिसके चारों ओर नीति का संपूर्ण ताना-बाना बुना हुआ है ।
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