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४४२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
पीड़ा दोनों ही हिंसा के रूप हैं इसीलिए अपरिग्रह अहिंसात्मक है, अहिंसा का ही एक रूप है ।
अपरिग्रह अथवा असंचय को भारतीय नीति में एक प्रमुख नैतिक प्रत्यय माना गया है | श्रावक के लिए तो परिग्रह की मर्यादा करना आवश्यक बताया गया है ।
जैन नीति परिग्रह के बाह्य रूप को तो दृष्टिगत करती है किन्तु उसके आन्तरिक रूप—गलत धारणा, मोह की विडम्बना ममत्व आदि पर भी दृष्टिपात करती है और आन्तरिक तथा बाह्य सभी प्रकार के परिग्रह अति बताती है ।
इस विस्तृत आयाम में अपरिग्रह की अवधारणा विश्व - नीति को न नीति की विशिष्ट देन है ।
अनाग्रह
अहिंसा का ही व्यावहारिक रूप अनाग्रह है । अनाग्रह का अभिप्राय किसी बात का आग्रह न करना है । अनाग्रह का ही वैचारिक पक्ष अनेकांत है | अनेकांत नीति का पालन करने वाला अपने पक्ष का आग्रह नहीं करता, उसमें पक्षपात नहीं होता ।
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व्यावहारिक रूप से अनाग्रह का अर्थ है - अपनी इच्छा किसी अन्य पर न थोपना । आगमों में जब कोई व्यक्ति किसी व्रत या नियम को ग्रहण करने की इच्छा प्रगट करता है तो गुरुदेव की ओर से कहा गया 'अहासुहं' शब्द अनाग्रह का ही प्रतीक है। यानी गुरु उससे नियम ग्रहण करने का आग्रह नहीं करते, अपितु उसकी इच्छा पर ही छोड़ देते हैं ।
नीति के क्षेत्र में अनाग्रह सर्वोत्तम नीति है । आग्रह से सामने वाला व्यक्ति दवाब मानता है । वह यह समझता है कि उसे अनुचित अनैतिक रूप से विवश किया जा रहा है और फिर उसके मन-मस्तिष्क में विरोध की - संघर्ष की चिनगारियाँ भड़कती हैं, जो शोले बनकर समाज के वातावरण को दूषित करती हैं, विषाक्त वातावरण निर्मित होता है ।
यह अनाग्रह नैतिक प्रत्यय भी जैन नीति की ही देन है ।
समत्व
समत्व जैन नीति का हार्द है और विश्व में नैतिकता के प्रसार के लिए सर्वोत्तम प्रत्यय है । जैन-नीति का तो प्रारम्भ ही समत्व की साधना
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