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४४० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
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उपनिषदों में ही कहीं देह (शरीर) को ही आत्मा कहा है तो कहीं प्राणों को ही आत्मा स्वीकार किया और फिर मन को आत्मा कहा गया, प्रज्ञानात्मा की धारणा ने जोर पकड़ा तो आगे चलकर चिदात्मा' तक दृष्टि जा पहुँची । सार यह कि आत्मा का स्वरूप स्थिर न हो सका।
सर्वप्रथम जैन दर्शन ने जीव का वास्तविक और व्यावहारिक दोनों दष्टि से स्वरूप निर्धारण किया । व्यावहारिक दृष्टि से जीव कर्मों का कर्ता है, और अपने कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, परिणामी है, स्वदेह परिमाण है। ___आत्मा का यह रूप नीतिशास्त्र में अति महत्व का है। कर्ता होने के कारण ही आत्म-स्वातन्त्र्य अथवा संकल्प स्वातन्त्र्य को मान्यता प्राप्त हो सकी जो नीतिशास्त्र का प्रमुख प्रत्यय तो है ही साथ ही आधार भी है। आत्म-स्वातन्त्र्य के अभाव में नीतिशास्त्र ठहर ही नहीं सकता।
आत्म-स्वातंत्र्य के साथ ही आत्म-गौरव की स्थापना हुई और आत्म-सम्मान के स्थायीभाव को नीतिशास्त्र में स्थान मिला।
आत्म-सम्मान के साथ-साथ जैन दर्शन ने सभी आत्माओं को समान बताया। इसका परिणाम यह हुआ कि सांसारिक पदार्थों में आत्मा की सर्वोच्चता स्थापित हई। अब तक जो ईश्वर आदि उच्च दैविक शक्तियों के अधीन आत्मा को-मानव आत्मा को माना जाता था, उस दासता की धारणा की चूलें हिलीं और मानव ने अपना महत्व समझा।
आत्मा के साथ ही कर्म का प्रत्यय भी जुड़ा है । यद्यपि कर्म की मान्यता सभी अध्यात्मवादी दर्शनों ने दी किन्तु जितना सूक्ष्म दिवेचन जैनदर्शन में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं।
कर्म के साथ पुनर्जन्म और पूर्वजन्म का प्रत्यय भी संलग्न है । नीति के क्षेत्र में आत्मा-आत्म स्वातन्ञ्य, कर्म, पूनर्जन्म के प्रत्ययों ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किये। नीतिशास्त्र जो व्यावहारिक आचरणों का ही मानक माना जाता है, वह अन्तर्मुखी भी हुआ और इस विस्तृत आयाम में वह
१ छान्दोग्योपनिषद ६ २ तैत्तिरीय २/२/३; कौषीतकि ३/२ ३ तैत्तिरीय उपनिषद २/३; बृहदारण्यक ४/६; छान्दोग्य ७/३/१ ४ कौषीतकि ३/८ ५ तैत्तिरीय २/६
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