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________________ ४ समस्याओं के समाधान में जैन नीति का योगदान मानव जब तक प्रकृति की गोद में खेलता रहा, उसका जीवन बहुत अधिक सुखी और शान्त था, न कोई समस्या, न कोई संघर्ष, सब कुछ सुहावना | प्रकृतिदत्त फलों का उपभोग उसे तृप्त कर देता और प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा उसके हृदय ' में मोद भर देती थी । लेकिन ज्यों ही प्राकृतिक साधन क्षीण व अपर्याप्त होने लगे, मानव का सम्पर्क उससे छूटता चला गया और उस रिक्त हुए स्थान को भरा संघर्षों ने, समस्याओं ने, अशांति ने । शान्त मानव-मन क्षुब्ध हो उठा । उस शांति को पाने के लिए मानव ने स्त्री से सहयोग की कामना की, सहधर्मिणी के रूप में उसका वरण किया, परिवार का निर्माण किया, लेकिन शांति तब और दूर किनारा कर गई, उसके कन्धों पर बच्चों के पालनपोषण का बोझ भी आ पड़ा । बच्चों की शिक्षा के लिए गुरुकुलों का निर्माण किया, योग्य, चरित्र - वान, गुणी व्यक्तियों को कुलपति बनाया; लेकिन गुणी और गुणवानों का आदर करने वाले विरले ही होते हैं । कुलपतियों में संघर्ष चलने लगा, उन की ईर्ष्या रंगीन हो उठी । परिणामतः मानव का क्षोभ तथा उद्वेग और बढ़ गया, बढ़ता ही गया । उसने पारस्परिक सहयोग के लिए समाज का निर्माण किया; लेकिन समाज ने उस पर रूढ़ियों के - परम्परा के बन्धन लगा दिये । शांति का इच्छुक मानव सामाजिक बन्धनों में जकड़ गया, और भी दुःखी संतप्त हो गया । १ वैदिक ग्रन्थों में वशिष्ठ और विश्वामित्र का विरोध प्रसिद्ध है | ( ४३० ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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