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________________ ४२२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नैतिक नियमों (कर्मों) की अपवादात्मकता और निरपवादात्मकता की चर्चा के स्वर वेदों, स्मृति ग्रन्थों, पौराणिक साहित्य में स्पष्ट सुनाई पड़ते हैं। पश्चिमी नीति-चिन्तक तो अकाल के समय, जब भीख मांगने पर दाना भी न मिले तो क्षुधा तृप्ति के लिए चोरी करना जैसे अनैतिक कर्म को क्षम्य कहता है और मिल इसे कर्तव्य मानता है। सिजविक सच बोलने को नैतिक कर्तव्य मानते हुए राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी कार्यवाहियों को गुप्त रखना उचित मानता है । अरविन्द घोष यद्यपि ' योगी थे, किन्तु उनकी भी मान्यता लगभग इसी प्रकार की थी, वे कहते हैं-किसी को क्या अधिकार है हमारे निजी जीवन के विषय में जानने का ? हम कौन-सी साधना करते हैं और किस प्रकार करते हैं, इस विषय में किसी को कुछ पूछना ही नहीं चाहिए और यदि वह अधिक आग्रह करता है तथा हम उसे योग्य पात्र नहीं समझते तो हमें मौन हो जाना चाहिए, अथवा टाल देना चाहिए। अमेरिक मनीषी टफ्ट के विचार तो और भी कठोर हैं। वह कहता है-जो नैतिक सिद्धान्त नैतिक प्रत्ययों का अर्थ यथार्थ परिस्थितियों से अलग हटकर करना चाहते हैं, वे वस्तुतः शून्य में विचरण करते हैं । __नैतिकता की सापेक्षता-निरपेक्षता के विषय में डा० भोलानाथ तिवारी का कथन संतुलित है । वह लिखते हैं नीति की कुछ बातें सामयिक महत्व की होती हैं और कुछ शाश्वत महत्व की । सामयिक नीति अस्थायी होती है और युग या काल की परिस्थिति के अनुकूल इसका विकास या ह्रास होता है तथा इसमें परिवर्तन होते हैं । सार्वकालिक या शाश्वत नीति में प्रायः परिवर्तन नहीं होता। १ लोकमान्य तिलक : गीता रहस्य, कर्म जिज्ञासा, अध्याय २ २. Leviathan तुलना करिए-बुभुक्षितैः किं न करोति पापं । ३. यूटिलिटिरियेनिज्म, अध्याय ५, पृ० ६५ ४. नैतिक जीवन के सिद्धान्त, पृ० ५६ ५. Quoted by Shishir Kumar Gupta : Vision of India. ६. श्री सागरमल जैन : जैन, बौद्ध, गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्य यन, भाग १, पृ० ५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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