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४२० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
है कि-दण्ड दिया नहीं जाता। अपनी भूल व मर्यादाविरुद्ध; नियम-भंग के प्रति व्यक्ति के हृदय में स्वयं पश्चात्ताप होता है और भविष्य में भूल या अपराध न करने का संकल्प जाग्रत होता है तब वह आचार्य या अनुशास्ता के समक्ष दण्ड लेने के लिए स्वयं ही उपस्थित होता है।
इस प्रकार जैन नीति में कर्तव्य की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है और उसी के साथ अधिकार तथा दण्ड को भी संलग्न किया गया है।
आधुनिक विद्वानों ने अपराध के (१) प्राकृतिक अशुभ (Natural Evil) (२-३) बौद्धिक बुराई अथवा भ्रान्ति (Intellectual evil or error) (४) नैतिक अशुम (moral evil), (५) अधर्म (vice) (६) पाप (sin) और (७) अपराध (crime)- यह सात भेद बताये हैं और इनमें से प्राकृतिक अशुभ तथा भ्रान्ति के लिए मानव को उत्तरदायी नहीं माना है।
लेकिन जैन नीति में इन सातों भेदों की गणना अपराध में की गई है । प्राकृतिक अशुभ जो कि भूकम्प, अकाल आदि के रूप में सामने आता है, इसका कारण व्यक्तियों की अनैतिक वृत्तियों को माना गया है। जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में स्पष्ट कहा गया है कि वासुदेव, बलदेव, तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के पुण्य प्रभाव से सागर आदि प्राकृतियां शक्तियाँ अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करती हैं।
इसका फलितार्थ यह है कि जिस काल में मानवों में अनैतिक प्रवत्तियाँ सीमातीत हो जाती हैं तो प्रकृति भी अपनी मर्यादा को त्याग देती है। वह सूखदायी होने की अपेक्षा मानव के लिए दुःखप्रद और कष्टकर हो जाती है। ऐसा विश्वास भारतीय जनता में व्याप्त है ।
इसी प्रकार जैन दर्शन में भ्रान्ति को मिथ्यात्व कहा गया है । वैदिक दर्शन में इसे अविद्या कहा गया है । और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में मिथ्यात्व अथवा अविद्या को अनैतिक माना गया है । यहाँ तक कि भ्रान्त चित्त व्यक्ति को तो नैतिकता का स्पर्श भी स्वीकार नहीं किया है, उसे घोर अनैतिक माना गया है।
जैन नीति के अनुसार सभी प्रकार के अपराध, कर्तव्यों का उल्लंघन अथवा दुरुपयोग तथा अधिकारों का अनुचित प्रयोग, पर-पीड़न आदि अनैतिकता है और कर्तव्यों तथा अधिकारों का सदुपयोग, सेवा, सहयोग आदि नैतिकता है।
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