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________________ अधिकार-कर्तव्य और दण्ड एवं अपराध | ४०६ करवाना अतिभार है और नौकर को समय पर वेतन न देना, भक्तपान विच्छेद में परिगणित किये गये हैं। स्पष्ट ही ये सब शोषण के विविध प्रकार हैं, और यह सभी विविध प्रकार की हिंसा हैं, जो अनैतिक है । जैनधर्म /नीति की अहिंसा के विस्तृत आयाम में सभी प्राणियों की स्वतन्त्रता का सम्मान निहित है । कर्तव्यों और अधिकारों में पारस्परिक सम्बन्ध (Inter-relation between Duties and Rights) कर्तव्य और अधिकार दोनों ही परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे की अवस्थिति ही नहीं है। प्रत्येक अधिकार के साथ कर्तव्य संलग्न है और प्रत्येक कर्तव्य अधिकार अजित करता है । अतः ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । गाँधीजी ने सत्य ही कहा है हमें अपने कर्तव्य करते रहना चाहिए, अधिकार तो स्वयमेव प्राप्त हो ही जायेंगे । वस्तुस्थिति यह है कि कर्तव्य और अधिकार दोनों ही सिक्के के दो पहलू हैं। कर्तव्य और अधिकार दोनों ही नैतिक बाध्यताएँ (Moral obligations) हैं और समाज पर आधारित हैं। समाज' व्यक्ति को अधिकार देता है तो उससे यह अपेक्षा करता है कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग समाज हित में करेगा और कर्तव्यों का निर्धारण करते समय भी समाज जन-हित की अपेक्षा करता है। कर्तव्याकर्तव्य विचार (Cisuistry) कभी-कभी व्यक्ति को दो कर्तव्यों में विरोध अनुभव होता है, उस समय वह दुविधा में पड़ जाता है कि उन विरोधी कर्तव्यों में से किसका पालन करे और किसका न करे । उदाहरणार्थ-कोई अवांछनीय तत्व (गुण्डा) किसी व्यक्ति के नोटों से भरे हैंडबेग को छीनना चाहता हो तो उस व्यक्ति पर पिस्तौल चलाये या १. श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : श्रावक धर्म, पृ० ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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