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जंन नीति और नैतिक वाद | ३६५
और फिर उन्हीं प्रेरणाओं का नैतिक वर्गीकरण करता है जिससे सतु असतु का निर्णय किया जा सकता है ।
मार्टिन्यू ने (१) प्राथमिक और (२) गौण - इस प्रकार से दो तरह के कर्म-प्रेरक स्वीकार किये हैं और फिर प्राथमिक कर्म प्रेरकों को चार प्रकारों में विभाजित किया है
(१) प्राथमिक प्रवर्तक - क्षुधा, मैथुन आदि पाशविक प्रवृत्तियाँ और आराम की प्रवृत्ति ।
(२) प्राथमिक विकर्षण - द्वेष, क्रोध, भय आदि की प्रवृत्तियाँ (३) प्राथमिक आकर्षण - राग, वात्सल्य, समाज- प्रेम आदि (४) प्राथमिक भावनाएँ - जिज्ञासा, विस्मय आदि गौण कर्म प्रेरक के भी चार प्रकार उसने बताये हैं(१) गौण प्रवृत्तियाँ - स्वादप्रियता, लोभ, मद आदि (२) गौण विकर्षण - मात्सर्यं प्रतीकार, शंका आदि (३) गौण आकर्षण - स्नेह, करुणा आदि
(४) गौण भावनाएँ - आत्म सुधार, सौन्दर्य की उपासना, धर्मनिष्ठा
आदि ।
इनको तरतमभाव की अपेक्षा १३ वर्गों में उसने विभाजित किया है । जैन दर्शन में जो संज्ञाओं की स्थिति बताई गई है, मार्टिन्यू का सिद्धान्त उसके काफी निकट है । संज्ञाओं को नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से कर्म के स्रोत कहा जा सकता है । ये अनुभव अथवा चेतना, संवेदना, संज्ञा, सोलह प्रकार की बताई गई हैं
(१) आहार संज्ञा (२) भय संज्ञा (३) मैथुन संज्ञा ( ४ ) परिग्रह संज्ञा (५) सुख संज्ञा ( ६ ) दुख संज्ञा (७) मोह संज्ञा (८) विचिकित्सा संज्ञा (2) क्रोधसंज्ञा, (१०) मान संज्ञा (११) माया - कपट वृत्ति संज्ञा (१२) लोभ संज्ञा (१३) शोक संज्ञा (१४) लोक संज्ञा (१५) धर्म संज्ञा और (१६) ओघसंज्ञा । इनमें धर्म संज्ञा को छोड़कर सभी सांसारिक कर्मों के स्रोत हैं और धर्म संज्ञा सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, आदि सद्गुणों की प्रेरक है ।
मार्टिन्यू ने भी अपने सिद्धान्त में जैन धर्म नीति सम्मत तथ्य को स्वीकार किया है । वह भी श्रद्धा, दया, मैत्री आदि को सद्गुण मानता है और क्रोध, इन्द्रिय सुख आदि बहिर्मुखी प्रवृत्तियों आदि को दुर्गुण ।
१ आचारांग - शीलांक वृत्ति, पत्रांक ११ । जैन ग्रन्थों में कहीं चार संज्ञा, कहीं दस संज्ञा व कहीं सोलह संज्ञाएँ बताई हैं ।
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