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जैन नीति और नैतिक वाद | ३७६
जोड़ा है और तर्क एवं भावनाओं से उसकी पुष्टि करने का प्रयास किया
लेकिन जैन दर्शन को यह नैतिक सन्देहवाद पूर्णरूप से अस्वीकार है। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पूण्य-पाप, जीव-अजीव, कल्याण-अकल्याण, आदि तत्व हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए, इसके विपरीत नहीं।
उन्होंने तो संशय अथवा सन्देहवादियों को असंबद्धभाषी अथवा मिथ्याभाषी बताया है ।
सुखवाद सुखवाद के अनेक प्रकार हैं, जैसे-जड़वादी सुखवाद, मनोवैज्ञानिक सुखवाद आदि ।
जड़वादी सुखवाद का आशय है- भोगवाद । इसमें इन्द्रिय-सुख को ही सुख माना गया है। पश्चिम में इसका सबसे बड़ा समर्थक एरिस्टीपस था। प्राचीन काल में एपीक्यूरस ने यह सिद्धान्त दिया था। उसके नाम पर एपीक्यूरियनिज्म (Epicureanism) नाम का एक वाद ही चल पड़ा।
भोग सुखवादी आत्मा, परमात्मा आदि का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते, उनके मतानुसार परलोक भी नहीं है, कर्म मिथ्या है, कोई नैतिक नियम शाश्वत नहीं है, चिन्ता छोड़कर वर्तमान में प्राप्त सुखों का भोग निराबाध रूप से करना चाहिए ।
भारत में चार्वाक सिद्धान्त इसी प्रकार का है। वह भी यही सब बातें कहता है । उसके मतानुसार-जब तक जीवन है, सुख से जीओ, ऋण लेकर भी घी पियो,इस शरीर के भस्म होने पर पुनरागमन (आत्मा के पुनजन्म) का प्रश्न ही नहीं। ___ एक शब्द में इस सुखवाद का आशय है खाओ, पीओ, मौज करो।
लेकिन वह वाद भारत में कभी स्थायित्व न पा सका। वैदिक, बौद्ध और जैन--तीनों दर्शनों ने इसे घोर अनैतिकतावाद कहा है।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद का अभिप्राय है कि प्राणी मात्र सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है।
१ सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रु तस्कन्ध, अध्ययन ५, गाथा १२।२६, संज्ञाप्रधान सूत्र २ सूत्रकृतांग, प्रथम श्रु तस्कन्ध, अध्ययन १२, गाथा २, ३ डा० रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ० १०७
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