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________________ १ जैन नीति और नैतिक वाद (JAINA ETHICS—ETHICO-MORAL THEORIES ) यह अनुभूत्यात्मक सत्य है कि मानव ज्ञान - संवेगात्मक प्राणी है । एक ओर वह अपनी विवेक बुद्धि से भली-भाँति चिन्तन-मननकर नैतिक नियमों का पालन करना चाहता है तो दूसरी ओर अधिकाधिक सुख की अनुभूति भी करना चाहता है । वह अपने आचरण को एक ओर ज्ञानात्मकता की लगाम से साधे रखना चाहता है, सन्मार्ग अथवा नैतिक मार्ग की ओर मोड़ना चाहता है तो दूसरी और आवेग संवेग उसे इन्द्रिय-सुखों की ओर बहा ले जाने के लिए प्रतिपल-प्रतिक्षण पूरी शक्ति से तत्पर रहते हैं । इसी पूर्ण स्थिति में मानव-मन कभी इधर मुड़ता है तो कभी उधर । और यही द्वैध विभिन्न नैतिक वादों की उत्पत्ति का कारण है । सन्देहवाद अथवा संशयवाद आदि का आधार मानव की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति है तो सुखवाद आदि वादों का आधार मानव के विभिन्न संवेग हैं । यद्यपि इन वादों के बीज प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं किन्तु पश्चिमी नीतिशास्त्रियों ने इनकी विस्तृत चर्चा और विश्लेषण किया है। यहाँ हम इनमें से कुछ प्रमुख वादों की चर्चा - विश्लेषण- विवेचन करके यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि जैन दर्शन और जैननीति का इनके संबंध में क्या दृष्टिकोण है, यह किस सीमा तक ग्राह्य अथवा अग्राह्य हैं । संदेहवाद सन्देहवाद का अभिप्राय है, किसी वस्तु के विषय में निश्चय न होना, ३७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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