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आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति | ३५६
स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा शब्दों का प्रयोग और इन अवस्थाओं में आत्मा की वृति प्रवृत्ति, मनोवैज्ञानिक दशा का क्रम - बद्ध वर्णन सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा ही किया गया उपलब्ध होता है | 2
परवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर आचार्यों ने इसी त्रिविध वर्गीकरण स्वीकार करके इनकी विशद चर्चा की है ।
गीता' और सांख्यदर्शन ने, त्रिगुण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, जो प्रमुखतया कुन्दकुन्द द्वारा निर्धारित त्रिविध वर्गीकरण के समान ही है । डॉ० राधाकृष्णन ने स्पष्ट कहा है- आत्मा का विकास तीन सोपानों में होता है । यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान ( तमोगुण प्रधान अवस्था) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष कर, रजोगुणात्मक प्रवृत्ति के द्वारा ऊँची उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढती है ।
(१) बहिरात्मा - ऐसा आत्मा शरीर और सांसारिक भोगों में निमग्न रहता है । आत्मा की ओर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती, आत्मा को जानने की रुचि ही जागृत नहीं होती । यह परिवार, धन-सम्पत्ति आदि में रचापचा रहता है | यह आत्मा की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति है । आचार्य हरिभद्र ने ऐसी आत्मा को भवाभिनन्दी कहा है । '
( २ ) अन्तरात्मा - ऐसा आत्मा अन्तर्मुखी होता है । उसमें अपनी आत्मा को जानने / समझने की रुचि जागृत हो जाती है । आत्मा के यथार्थ स्वरूप पर वह श्रद्धान रखता है । इन्द्रिय-विषय-भोगों की रुचि कम हो जाती है । ज्यों-ज्यों उसका आत्म श्रद्धान दृढ़ होता है, वह संसार और सांसारिक भोगों का त्याग करता चला जाता है और उन्हें पूर्णरूप से त्याग कर संसार त्यागी श्रमण बन जाता है । साधना के महामार्ग पर चलता हुआ परमात्म-पद प्राप्ति की ओर अग्रसर रहता है ।
(३) परमात्मा - यह दो प्रकार के होते हैं - ( १ ) जीवनमुक्त (सदेह ईश्वर) और ( २ ) संसारमुक्त (विदेह ईश्वर ) । जीवनमुक्त अरिहंत परमात्मा हैं और संसार मुक्त सिद्ध परमात्मा । "
१ मोक्ष पाहुड, गाथा ४
२ गीता १४, १५, ७, १३ आदि
२ भगवद्गीता - डा० राधाकृष्णन, पृ० ३१३
४ योगबिन्दु, श्लोक ८६
५ कुन्दकुन्दाचार्य : मोक्ष पाहुड, गाथा ४, ५, ८, ९, १०, ११ आदि ।
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