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३५८ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन आदर्श और व्यवहार स्थिति
यद्यपि यह सत्य है कि स्वरूप की अपेक्षा आत्मा शुद्ध-बुद्ध चैतन्य स्वरूप है, उसमें न कोई विकार होता है और न किसी प्रकार का उत्थानपतन ही । वह सहज है, अनन्त सुख और शक्ति स्वरूप है । न वहां बन्धन है, न मुक्ति और न विकार की कोई प्रक्रिया ही।
लेकिन यह आदर्श स्थिति है, जो सिर्फ सिद्धावस्था में ही पाई जाती है। संसार में तो आत्मा सर्वत्र बंधन में ही है और बन्धनयुक्त आत्मा ही बंधन तोड़ने का, मुक्त होने का प्रयास करता है ।
धर्मशास्त्रों में जितने भी आचार वर्णित हैं, नीतिशास्त्रों में जितनी नीतियों और नैतिक नियमों का उल्लेख हुआ है, जितने भी शिष्टाचार और सदाचार के नियम हैं, सभी व्यवहार दृष्टि (practical viewpoint) के अनुसार हैं और संसारी आत्मा के लिए ही हैं, जो अभी तक बंधनों के जाल में जकड़ा हुआ है।
नीतिशास्त्र भी निश्चयनय अथवा स्वरूपदृष्टि की ऊँची उड़ान नहीं भरता। वह इसको आदर्श स्थिति स्वीकार करते हुए भी व्यावहाराश्रित अधिक है और व्यावहारिक दृष्टिबिन्दु से ऐसे नियम निर्धारित करता है, जिनके अनुपालन से उस आदर्श स्थिति को प्राप्त किया जा सके। त्रिविध स्थिति
व्यवहार दृष्टि के अनुसार आत्मा की तीन प्रकार की स्थिति वर्णित कई गई है।
आचारांग में भी इस तीन प्रकार की स्थिति का वर्णन मिलता है; किन्तु १ बहिरात्मा, २ अन्तरात्मा और ३ परमात्मा-ऐसा स्पष्ट नाम निर्देश नहीं प्राप्त होता।
___ आचारांग में वर्णित बाल, मूढ़, मन्द आदि बहिर्मुखी अथवा बहिरात्मा के समकक्ष हैं। पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी, अनन्यदर्शी आदि शब्द आत्मा के अन्तरात्मा स्तर की ओर इंगित करते हैं। इनके लिए मुनि शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । सम्यग्दर्शी और पाप से विरत होना, अन्तरात्मत्व ही है । विमुक्त, पारगामी आदि शब्दों का प्रयोग आत्मा की परमात्मदशा को द्योतित करने के लिए हुआ है।
१ देखिए-आचारांग, प्रथम श्रु तस्कन्ध, अध्ययन ३-५
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