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________________ ३५४ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सभी पशु जीवित ही बन्द कर दिये जायँ । यदि देवी को भोग लेना होगा तो स्वयं ही ले लेगी। किन्तु मैं विश्वास के साथ कहता हूँ कि कोई पशु मरा हुआ नहीं मिलेगा। इससे यह सिद्ध हो जायेगा कि देवी मांसभक्षिणी नहीं है, वह पशु बलि नहीं चाहती। इस प्रकार ढोंगी पाखण्डियों की पोल खुल जायेगी और पशु बलि बन्द हो जायेगी।" ऐसा ही किया गया और पशु-बलि बन्द हो गई। __यद्यपि इस प्रकार की युक्ति बताना श्रमण के 'योग-सत्य' को प्रभावित करता है, किन्तु लोक कल्याणकारी तथा जीवहिंसा रोकने में समर्थ होने के कारण यह दोष नहीं है अपितु नीति है-अहिंसा धर्म का प्रचार है । इससे सभी जीवों का जीवन सुखमय बनता है । ... उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें संजयीय अध्ययन में मुनि गर्दभाली संजय राजा को शिकार से विरत करते हैं । इस सन्दर्भ में अन्य कई प्रेरक दृष्टान्त भी हैं। वर्तमान युग में जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ने भी अपने प्रवचनों के प्रभाव से अनेक राजाओं द्वारा हिंसा बन्द करवाई, शिकार का त्याग कराया और जीव-रक्षा की प्रेरणा दी। जैन दिवाकरजी ने तो स्थान-स्थान पर हिंसा, शिकार आदि पापों का त्याग कराया। उन्होंने पतितोद्धार भी किया। वेश्याओं से वेश्यावृत्ति का त्याग कराया और उस गहित-निन्द्य जीवन से निकालकर सम्मानित जीवन जीने की प्रेरणा दी। यहां तक कि सं० १९८० में इन्दौर के मुहम्मद कसाई का भी हृदय परिवर्तन कर दिया, उसने भी जीव-वध न करने का नियम ले लिया। यह सभी प्रवृत्तियां श्रमण के लोकोपकार से संबंधित हैं। यह सत्य है कि श्रमण का प्रमुख उद्देश्य स्वात्म-कल्याण होता है, लेकिन वह परकल्याण की भी उपेक्षा नहीं करता, जहां भी वह पर-कल्याण देखता है, अवश्य ही वैसी प्रेरणा देता है । वास्तव में साधु-संस्था का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह समाज में फैली बुराइयों को दूर करने की प्रेरणा दे, लोगों के दिल-दिमाग पर जो मिथ्यात्व का गहन अन्धकार छाया हुआ है, उसे अपनी प्रेरणा से-धर्म के प्रकाश से विनष्ट करे । इसी प्रकार कुरीतियों, मिथ्या मान्यताओं, हानिकारक प्रथाओं से लोगों को बचने की प्रेरणा दे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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