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________________ ३५२ | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन यद्यपि आर्य सुहस्ति भी जानते थे कि श्रमण को खरीदा हुआ भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए, यह दोष है । किन्तु उनके समक्ष संघ- रक्षा का प्रश्न था । उनके मन-मस्तिष्क में शुद्ध श्रमणाचार और परिस्थिति की विकटता का द्वन्द्व चला, काफी ऊहापोह किया । अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे-न धर्मः धार्मिक विना- जब धार्मिक जन-धर्म का अनुपालन करने वाले ही नहीं रहेंगे तो धर्म भी कहाँ टिकेगा । इस सूत्र के प्रकाश में उन्होंने व्यावहारिक निर्णय लिया, श्रमणों को वैसा भोजन ग्रहण करने से नहीं रोका । इसका परिणाम यह हुआ कि श्रमण संघ सुव्यवस्थित रहा, अकाल की काली छाया में भी श्रमण जन आत्यन्तिक क्षुधा की वेदना से काल कवलित नहीं हुए और सुकाल होने पर उन्होंने दोष सेवन भी त्याग दिया । धर्मशास्त्रीय भाषा में इसे अपवाद मार्ग कहा जा सकता है, जिसका अर्थ ही है विकट परिस्थितियों में विशिष्ट निर्णय । नीति की भाषा में इसे नैतिक अथवा व्यावहारिक निर्णय कहा जायेगा; क्योंकि नीति भी धर्माभिमुखी होती है; नैतिक निर्णय भी धर्म और सदाचार एवं शुद्धाचार की रक्षा के निमित्त ही लिए जाते हैं । अपवाद मार्ग का सेवन श्रमण जान-बूझकर उसी स्थिति में करता है, जब उसे विश्वास हो जाता है कि अपवाद सेवन किये बिना ज्ञान-दर्शनचारित्र आदि आत्मिक गुण सुरक्षित नहीं रहेंगे । इसी प्रकार नैतिक नियम भी धर्म की रक्षार्थ होते हैं । निर्धन सेवा की प्रेरणा आचार्य हेमचन्द्र को एक निर्धन वृद्धा ने बड़े भक्ति भावपूर्वक अपने हाथ से बुनी हुई चादर भेंट दी । आचार्य उसी मोटी खुरदरी चादर को कंधे पर डाले पाटन पहुँचे । पाटन उस समय गुजरात की राजधानी थी और वहां का नरेश आचार्यश्री का परम भक्त था । उसने एक बहुत ही कीमती चादर देकर आचार्यश्री से विनम्र निवेदन किया "गुरुदेव ! यह चादर बहुत ही मोटी और भद्दी है । मुझे इसे देखकर बहुत ही लज्जा और ग्लानि होती है कि मेरे गुरु होकर भी आपके शरीर पर ऐसी खुरदरी चादर रहे। आप इसे उतारिए, मेरी चादर ग्रहण करिए ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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