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३५० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
(२) वचनगुप्ति-वचन के संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप व्यापार को रोकना वचन गुप्ति है । विकथा, कटु भाषा आदि न बोलना भी वचन गुप्ति है।
वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में विवेक रखना-नपी-तुली भाषा बोलना और अन्यत्र मौन रहना वचनगुप्ति है ।
वस्तुतः वाणी विवेक, वाणी संयम और वाणी निरोध को ही वचनगुप्ति कहा गया है।
(३) कायगुप्ति-संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ में प्रवृत्त काययोग का निरोध करना तथा सोने-जागने, उठने-बैठने, चलने-फिरने और इन्द्रियों के प्रयोग में काययोग का निग्रह कायगुप्ति है।
- अकुशल और कुशल कर्मों के लिए नीतिशास्त्र में अशुभ और शुभ शब्द दिये गये हैं । मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्तियाँ वहाँ भी अनैतिक हैं, करने योग्य नहीं हैं और शुभ प्रवृत्तियाँ आचरणीय हैं, नैतिक हैं ।
गुप्तियों की जैसी अवधारण धर्मशास्त्रों में है, वैसी ही नीति में भी है । इसमें कोई विशेष अन्तर नहीं है।
इन समिति गुप्तियों के योग से श्रमण साधक अपने स्वीकृत महाव्रत आदि २७ गुणों का परिपालन करता हुआ नैतिक चरम की ओर बढ़ता है।
स्व-पर कल्याण इस सम्पूर्ण विवेचन से यह धारणा बना लेना उचित नहीं होगा कि श्रमण की समस्त साधना स्व केन्द्रित है, वह अपनी ही आत्मा के उत्थान में लीन रहता है। अपितु सत्य यह है कि वह अपने कल्याण के साथ अन्य जनों, दूसरे लोगों-मनुष्यों और यहाँ तक कि जीवमात्र के प्रति कल्याण-भावना रखता है और जहां तक सम्भव हो सकता है, कल्याण करता भी है।
१ उत्तराःययन सूत्र २४/२२-२३ २ वाचन पृच्छन प्रश्न व्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ निरोधरूपत्वे, सर्वथा भाषानिरोध रूपत्वं वाग्गुप्तेर्लक्षणं ।
--आर्हत् दर्शन दीपिका ५/६४४ ३ उत्तराध्ययन सत्र २४/२४-२५.
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