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________________ नैतिक चरम | ३३६ द्र (५) कायक्लेश - इस तप में विभिन्न आसनों द्वारा काया यानी शरीर को अनुशासित किया जाता है, उसे कष्टसहिष्णु बनाया जाता है, शरीर की सुख-सुविधा लोलुपता और सुखशीलता की प्रवृत्ति को समाप्त किया जाता है। सर्दी, गर्मी के प्राकृतिक कष्ट तो साधक सहता ही है, विभिन्न प्रकार के आसन आदि के कष्ट स्वेच्छा से सहता है । (६) प्रतिसंलीनता - इस तप में व्यक्ति इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख करता है, कषायों पर विजय प्राप्त करता है और मन-वचन-काय की कुप्रवृत्तियों को रोकता है । इन सभी बाह्य तपों से शरीर और आत्मा की शुद्धि तो होती ही है, साथ ही यह तप नैतिक उत्कर्ष व चरम की भूमिका को भी दृढ़ करते हैं । अनशन को चिकित्साशास्त्र में शरीर की नीरोगता के लिए उत्तम औषधि बताया गया है - "लंघनं परमौषधम् ।" स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिक का निवास होता है, साथ ही इन्द्रियों का वेग कम होता है । उनका दमन होता है, जो नैतिक उत्कर्ष के लिए आवश्यक है । ऊनोदरी में तो इच्छाओं पर ब्रेक लगाना ही पड़ता है | सामने स्वादिष्ट व्यंजनों से थाल भरा रखा है, आग्रह भी हो रहा है, रसना चाहती है कि कुछ मिष्ठान्न और चटपटे पदार्थों का स्वाद लिया जाय, पेट में भूख भी है, वह भी और भोजन मांग रहा है, हाथ मिठाई की ओर बढ़ना चाहते हैं, नासिका भी भोजन से उठती मधुर सुगन्ध से लालायित हो रही है, आँखें भी मिठाई और नमकीन के सुन्दर रूप को टकटकी लगाये देखना चाहती हैं, ऐसे में अपने आपको रोकना, मन को वश में करना बड़ा कठिन है । इसी अपेक्षा से ऊनोदरी अनशन से भी कठिन है क्योंकि इसमें पांचों इन्द्रियों और मन को वश में करना होता है, इच्छाओं पर नियन्त्रण करना होता है। 'इच्छा' desire ) नीतिशास्त्र का प्रमुख प्रत्यय है, उन पर नियन्त्रण करना, कम करना, उन्हें नैतिक उत्थान के लिए आवश्यक है । यही बात वृत्तिसंक्षेप और प्रतिसंलीनता तप के लिए है । इसी प्रकार कायक्लेश तप से शरीर को अनुशासित किया जाता है । अनुशासन का महत्व नैतिक दृष्टि से कितना है, यह सर्वजन विदित है । आभ्यन्तर तप (७) प्रायश्चित्त तप -- - कोई भूल हो जाने पर हृदय से पश्चात्ताप प्रगट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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