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________________ ५. नैतिक उत्कर्ष (श्रावक की आचार नीति २७०-३११ __ 'श्रावक' शब्द का निर्वचन २७०, व्रत का स्वरूप २७२, श्रावक व्रत २७३, व्रतों के सम्बन्ध में सावधानियाँ २७५, अतिक्रम आदि २७६, व्रतग्रहण की विधि एवं मर्यादा २७७, अणुव्रत २७६, अहिंसाणुव्रत २७६, सत्याणुव्रत २८२, अचौर्याणुव्रत २८५, स्वदारसन्तोषव्रत २८७, स्थूलपरिग्रह परिमाण व्रत २६०, गुणव्रत २६२, दिशा परिमाण व्रत २६२, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत २६४ निषिद्ध व्यवसाय २६५, अनर्थदण्ड विरमण व्रत २९८, शिक्षाबत ३००, सामायिक ३०१, देशावकाशिक व्रत ३०२, पौषधोपवास व्रत ३०२, अतिथिसंविभाग व्रत ३०३ । नैतिक उत्कर्ष के सोपान (श्रावक प्रतिमा) ३०४, प्रतिमाओं का स्वरूप और विवेचन ३०६, प्रतिमाओं की काल मर्यादाएँ और . विशेषताएं ३१०, एक विकल्प ३११ । ६. नैतिक चरम (श्रमणाचार) ३१२-३५५ श्रमण शब्द की विशिष्टताएँ ३१३, श्रमण के सत्ताईस गुण ३१६, उत्सर्ग और अपवाद मार्ग ३१६, श्रमण के सत्ताइस गुणों का विवेचन ३१८, अहिंसा महाव्रत ३१६, सत्य महाव्रत ३२०, अस्तेय महाव्रत ३२१, ब्रह्मचर्यं महाव्रत ३२१, अपरिग्रह महाबत ३२४, पांच इन्द्रिय निग्रह ३२६, कषाय-विवेक ३२७, भाव सत्य ३२८, योग सत्य ३२८, करण सत्य ३२८, क्षमा ३२६, विराग ३२६, मन-वचनकाय समाहरणता ३२६, दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्पन्नता ३३०, वेदना और मारणान्तिक समाध्यासना ३३१, बाईस परीषह ३३१, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ ३३४, दशश्रमण धर्म ३३६, तप ३३७, तप के बारह भेद ३३७, बाह्य तप के भेद ३३८, आभ्यन्तर तप और उसके भेद ३३६, प्रवचन माता ३४५, समिति ३४७, गुप्ति ३४६, स्व-पर-कल्याण ३५० आर्य सहस्ति का व्यावहारिक निर्णय ३५१, निर्धन सेवा की प्रेरणा ३५२, अहिंसा की प्रेरणा ३५३ । ७. आत्मविकास की मनोवैज्ञानिक नीति (गुणस्थान) ३५६-३७४ पूर्णता की यात्रा ३५६, आदर्श और व्यवहार स्थिति ३५८, विविध स्थिति ३५८, गुणस्थान ३६०, गुणस्थानों के नाम ३१२, चेतना के भाव ३६२, कर्म ३६३, (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ३६४, ( ३४ ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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