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________________ ३१० | जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन सिद्ध कर दिया है कि अग्निकाय के जीव होते हैं जिनकी हिंसा पचनपाचन आदि कार्यों में हो जाती है। (१०) उद्दिष्टभक्त त्याग प्रतिमा--इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक अपने निमित्त बने हुए आहार को भी ग्रहण नहीं करता। वह शिर के बालों का शस्त्र से मुण्डन कराता है, किन्तु गृहस्थाश्रम का चिन्ह होने के कारण चोटी रखता है। वह किसी बात को पूछने पर यदि जानता है तो कहता है- 'मैं जानता हूँ और यदि नहीं जानता तो स्पष्ट कह देता है कि 'मैं नहीं जानता ।' अर्थात् उसकी वृत्ति-प्रवृत्तियां बहुत सहज एवं सरल हो जाती हैं, वह स्पष्टवादी बन जाता है । नैतिक दृष्टि से मानव का यह अति उच्च कोटि का गुण है। 'दिल में सफाई और होठों पर सचाई' किसी भी मानव की ऐसी विशेषता है, जिसके कारण वह उच्च नैतिक धरातल पर अवस्थित हो जाता है। समाज उसे पूर्ण नैतिक मानने लगता है। उसकी नैतिकता उत्कर्ष पर पहुँच जाती है। (११) श्रमणभूत प्रतिमा-यह श्रमण-जीवन अथवा सर्व संग त्यागरूप शिक्षा की अवस्था है। इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण के समान जीवन व्यतीत करता है। श्रमण के समान ही वह निर्दोष भिक्षा, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, समाधि में लीन रहता है। उसकी वेश-भूषा भी श्रमण के समान होती है और आचार-विचार आदि दैनिक चर्या भी। यह श्रावक जीवन के उच्चादर्शों का अन्तिम सोपान है। कालमर्यादा एवं अन्य विशेषतायें-प्रतिमाओं के पालन की कालमर्यादा भी निश्चित की गई है । यथा-पहली प्रतिमा एक मास की, दूसरी २ मास की, तीसरी ३ मास की, चौथी ४ मास की, पांचवीं ५ मास की, छठी ६ मास की, सातवीं ७ मास की, आठवीं ८ मास की, नौवींह मास की, दसवीं १० मास की, ग्यारहवीं ११ मास की। इस प्रकार इन सभी प्रतिमाओं का काल पाँच वर्ष छह मास (६६ मास) है। १. तीर्थकर, जीव विज्ञान विशेषांक, यह जीव (अग्निकाय के जीव) ७८५ सेलसियस तक जीवित रहते हैं और उससे अधिक ताप होने से मरने लगते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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